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समुंदर की गोद में
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१७. समुंदर की गोद में
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सावन भादों के बादलों के उत्संग में इन्द्रधनुष के जैसे रंग उभरते हैं, वैसे ही रंगों में श्रेष्ठी धनंजय डूबने लगा। धनंजय जवान था, छबीला नवजवान था। सुरसुंदरी की देह में से उसे खुशबू, भीगे-फूलों की गंध आ रही थी। सुरसुंदरी का प्यार पाने के लिए उसका दिल बेताब हो उठा था, पर वह अपनी अधीरता को व्यक्त करना नहीं चाहता था। वह चाहता था कि सुरसुंदरी खुद उसके रंग में रंग जाए | सुरसुंदरी स्वयं उसे प्यार करने लगे।
सुरसुंदरी तो बेचारी धनंजय के सारे व्यवहार को सौजन्य समझ रही थी। यक्षद्वीप पर धनंजय के दिये वचन को वह ब्रह्म वाक्य समझकर निश्चित हो गयी थी। फिर भी कभी-कभी धनंजय की निगाहों को अपने शरीर पर फिसलती देखकर उसे धक्का-सा लगता था । 'यह क्यों मेरी देह को इस तरह टुकुर-टुकुर देखता है?' उसने सोच-समझकर कपड़े पहनने में मर्यादा की रेखा खींच ली। महीन वस्त्र पहनना छोड़ दिया।
एक दिन सुरसुंदरी अपने कक्ष में बैठी थी। अतीत की यादों में खोयी-खोयी कुछ सोच रही थी कि, धनंजय ने कमरे में प्रवेश किया। समीप में पड़े हुए भद्रासन पर बैठ गया और बोला :
'सुरसुंदरी... आज मेरे मन में तेरे बारे में एक विचार आया और मेरा दिल बहुत दुःखी हो उठा।'
'मेरे खातिर आपका दिल दुःखी हुआ, मेरी ऐसी कौन सी गलती...?' ___ 'नहीं... नहीं। तू गलत मत समझ | मैं तो और ही बात कर रहा हूँ। तेरी गलती कुछ नहीं... भूल तो उस अमरकुमार की है।'
'नहीं, ऐसा मत बोलिए! उनकी कोई गलती नहीं है, यह तो मेरे ही पापकर्मो का उदय है।'
'बिलकुल गलत । तेरा सोचने का ढंग ही गलत है। यह क्या? उसकी गलती का फल तू भोगे? तू चाहे तो तेरे पुण्यकर्म अपने आप उदय में आ सकते हैं। अभी इसी वक्त उदय में आ सकते हैं। पर इसके लिए मुझे तेरे मन में से उस निर्दय अमरकुमार को दूर करना होगा।'
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