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फिर सपनों के दीप जले!
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[१६. फिर सपनों के दीप जले!BSITY
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सुरसुंदरी ने पहले उपवन में अपना थोड़े दिन के लिए स्थान बना दिया । यक्षराज ने छोटी-सी एक पर्णकुटीर बना दी थी। सुरसुंदरी अपना अधिकांश समय श्री नवकार मंत्र के जाप में व अरिहंत परमात्मा के ध्यान में ही बिताती थी।
सुबह नित्यकर्म से निपटकर वह समुद्र के किनारे चली जाती और दूर-दूर समुद्र की सतह पर निगाह डालती। वह किसी ऐसे यात्री जहाज़ की प्रतीक्षा कर रही थी, जो जाहज़ बेनातट नगर की ओर जा रहा हो। एकाध प्रहर समुद्र के किनारे बिताकर वह फिर उपवन में लौट आती... और चारों उपवनों में परिभ्रमण करती। तीसरे प्रहर में वह चौथे उपवन में पहुँच जाती व जलाशय में से हिरन प्रकट करके उनके साथ खेलती रहती। चौथे प्रहर में पुनः वह पहले उपवन में आकर, अपनी पर्णकुटीर में आसन लगाकर श्री नमस्कार महामंत्र का जाप करती थी। सूर्यास्त के पूर्व फलाहर करके वह पुनः समुद्रतट पर घूमने के लिए चली जाती। यक्षराज की उसपर कृपा दृष्टि थी। अतः उसे किसी बात का डर नहीं था। उसके दिल में शीलधर्म था और उसके होठों पर श्री नवकार महामंत्र था।
एक ही इच्छा थी-तमन्ना थी कि बेनातट पर पहुँचकर अमरकुमार से मिलना। उसके मन को अब प्रतीति हो चुकी थी मेरा शीलधर्म मेरी रक्षा करेगा ही। मेरा नवकार महामंत्र जाप और मेरे शीलधर्म, मेरी रक्षा करेगा ही। मेरा नवकार महामंत्र जाप मेरे शीलधर्म को आँच नहीं आने देगा। यक्षद्वीप पर एक सप्ताह बीत चुका था।
आठवाँ दिन था। नित्यक्रम के मुताबिक सुरसुंदरी सुबह समुद्र के किनारे पर पहुँची। वातावरण आह्लादक था। समुद्र भी शांत था। सुरसुंदरी स्वच्छ भूमि खोजकर बैठ गयी, परमात्मा के ध्यान में अपने मन को लगा लिया। _इतने में दूर-दूर... समुद्र की ओर से आदमियों का शोर सुनायी देने लगा। सुरसुंदरी ने अपना ध्यान पूर्ण किया और वह खड़ी हो गयी।
एक जहाज़ यक्षद्वीप की ओर आ रहा था। सुरसुंदरी का दिल हर्ष से उछलने लगा।
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