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पत्र ११ नाश करने के लिए तीक्ष्णता चाहिए। कर्मों का नाश करने के लिए तीक्ष्णता चाहिए, वह भी परमात्मा में है!
करुणा और तीक्ष्णता-परस्पर विरोधी गुण हैं। हानादानरहितपरिणामी उदासीनता वीक्षण रे...
'हानादान' यानी त्याग-स्वीकार | उदासीनता में त्याग-स्वीकार की कोई इच्छा नहीं होती है। किसी भी प्रकार की इच्छा के बिना वीक्षण करना...यानी देखना, वह उदासीनता है। परमात्मा में ऐसी उदासीन दृष्टि होती है, मध्यस्थ दृष्टि होती है।
एक ही आत्मा में परस्पर विरोधी गुण कैसे रह सकते हैं, यह कैसे संभव है? विरोध को तीसरी गाथा में व्यक्त करते हैं : परदुःख-छेदन इच्छा करुणा, तीक्षण परदुःख रीझे रे...
परदुःखों का नाश करने की इच्छा 'करुणा' कहलाती है और परदुःख देखकर खुश होना-तीक्ष्णता है! दोनों गुण परस्पर विरोधी हैं। उदासीनता उभय-विलक्षण! ___ करुणा और तीक्ष्णता-दोनों से विलक्षण है, उदासीनता! तो फिर एक ही व्यक्ति में ये तीनों गुण कैसे रह सकते हैं? परमात्मा में यह त्रिभंगी कैसे संभव है?
आनन्दघनजी ने स्वयं यह प्रश्न उठाया है। चूंकि समाधान करना है, स्याद्वाद दृष्टि से! जब तक प्रश्न पैदा न हो, तब तक समाधान कैसे हो सकता है? इसलिए प्रश्न को अच्छी तरह समझना ।
त्रिभंगी तो वही है - करुणा, तीक्ष्णता और उदासीनता की। परन्तु अर्थघटन दूसरा करते हैं। परमात्मा में परदुःखच्छेदन की इच्छारूप करुणा नहीं है, परन्तु अभयदानस्वरूप करुणा होती है! आत्मा के साथ अनादिकाल से जो कर्ममल का संयोग है, वह कर्ममल नष्ट होने पर विशुद्ध आत्मा में एक विशिष्ट गुण का आविर्भाव होता है- जीवों को संसार-भय से बचाने की अभयदान की वृत्ति । परमात्मा को 'अभयदयाणं' कहा गया है |
परमात्मा की करुणा अभयदान-स्वरूप होती है। 'अभयदान ते मलक्षय करुणा...'
जब करुणा की परिभाषा ही बदल गई...तब तीक्ष्णता, ऐसी करुणा के
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