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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८४ पत्र ११ साथ बिना विरोध रह सकती है। अनादिकालीन मलक्षय करने के लिए जैसा आत्मभाव चाहिए, वैसे आत्मभाव को ही तीक्ष्णता कहनी चाहिए। तीक्ष्णता का अर्थ उग्रता या तीव्रता नहीं करने का है। करुणा की पृष्ठभूमिका में तीक्ष्णता रह सकती है। प्रेरक विण कृति उदासीनता, इम विरोध-मति नावे रे... कर्मक्षय सहजभाव से होता है और अभयदान का गुण भी सहजता से प्रगट होता है...किसी प्रेरक की वहाँ प्रेरणा अपेक्षित नहीं होती है...कोई विशेष प्रयत्न नहीं होता है...यही आत्मा की उदासीनता है। कर्तृत्व का अंश मात्र भी अभिमान नहीं रहता है। ऐसी उदासीनता, करुणा और तीक्ष्णता के साथ परमात्मा में रह सकती है, कोई विरोध पैदा नहीं हो सकता है। त्रिभंगी का अर्थघटन, जो सही रूप में होना चाहिए वह कर दिया! यही सापेक्ष दृष्टि है, स्याद्वाद दृष्टि है। परमात्मा की अपेक्षा से करुणा अभयदानस्वरूप है, जीवात्माओं की अपेक्षा से करुणा परदुःखच्छेदन की इच्छारूप है! परमात्मा में इच्छा नहीं होती है। वीतराग इच्छारहित होते हैं । इच्छा रागी-द्वेषी जीवों में होती है। वैसे कर्तृत्व का अभिमान वीतराग में नहीं होता है, वीतराग सभी प्रकार के अभिमानों से मुक्त होते हैं...ज्ञाता-द्रष्टा होते हैं - यही उनकी उदासीनता होती है। संसारी जीवों की उदासीनता निराशा - रूप होती है, ग्लानिरूप होती है। उपेक्षा-रूप होती है। स्याद्वाद दृष्टि, अपेक्षा से शब्दों का अर्थ करना सिखाती है। पदार्थदर्शन अपेक्षा से किया जाना चाहिए। अपेक्षाओं के माध्यम से एक वस्तु अनन्त धर्मात्मक देखी जा सकती है। अब, परमात्मा में द्विभंगी बताते हैं, यानी परस्पर-विरोधी दिखने वाला व्यक्तित्व बताकर, उसका सामंजस्य स्थापित करते हैं ० परमात्मा शक्ति-रूप हैं और व्यक्तिरूप भी हैं, ० परमात्मा त्रिभुवनपति हैं और निर्ग्रन्थ भी हैं, ० परमात्मा भोगी हैं और योगी भी हैं, ० परमात्मा वक्ता हैं और मौनी भी हैं, ० परमात्मा उपयोगवाले हैं और उपयोगरहित भी हैं! For Private And Personal Use Only
SR No.009635
Book TitleMagar Sacha Kaun Batave
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2010
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size2 MB
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