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पत्र ११ शीतल जिनपति ललित-त्रिभंगी, विविध भंगी मन मोहे रे,
करूणा- कोमलता तीक्षणता, उदासीनता सोहे रे... शीतल. सर्वजंतु - हितकरणी करुणा, कर्मविदारण तीक्षण रे,
हानादानरहित - परिणामी, उदासीनता वीक्षण रे... शीतल. परदुःखछेदन इच्छा करूणा, तीक्षण परदुःख रीझे रे,
उदासीनता उभयविलक्षण, एक ठामे केम सीझे रे? शीतल. अभयदान ते मलक्षय, करुणा, तीक्षणता गुण भावे रे,
प्रेरक विण कृति उदासीनता, इम विरोध मति नावे रे...शीतल. शक्ति, व्यक्ति, त्रिभुवनप्रभुता, निर्ग्रन्थता संयोगे रे,
योगी-भोगी, वक्ता-मौनी, अनुपयोगी उपयोगे रे... शीतल. इत्यादिक बहु भंग त्रिभंगी, चमत्कार चित्त देती रे,
अचरिजकारी चित्र-विचित्रा, आनन्दघन-पद लेती रे... शीतल. 'हे शीतल जिनपति! आप में रही हुई गुणों की सुंदर 'त्रिभंगी', द्विभंगी...वगैरह अनेक प्रकार की भंगियाँ [प्रकार] मेरे मन को मोह लेती हैं।'
भंग का अर्थ होता है, प्रकार | 'त्रिभंगी' यानी तीन गुणों का समूह, द्विभंगी यानी दो प्रकार के गुणों का समूह | परस्पर विरोधी गुणों का समूह परमात्मा में रहा हुआ है! हालाँकि वह विरोध प्रत्यक्ष में दिखता है, परन्तु स्याद्वाददृष्टि में वह विरोध नहीं रहता है।
परस्पर विरोधी ऐसे तीन गुण बताये हैं, उसी को 'त्रिभंगी' कहा है। १. करुणा [कोमलता] २. तीक्ष्णता और ३. उदासीनता।
दूसरी गाथा में एक-एक गुण की व्याख्या की है : सर्वजन्तु हितकरणी करुणा... ___ करुणा की कितनी व्यापक व्याख्या दी है! और ऐसी करुणा परमात्मा में अंतर्निहित है, यह बात महत्वपूर्ण कही है। परमात्मा सभी जीवों का हित करनेवाले हैं- यह बात इस विधान से स्पष्ट होती है। कर्मविदारण तीक्षण रे...
परमात्मा में कर्मों का नाश करने रूप तीक्ष्णता भी है! किसी भी वस्तु का
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