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पत्र ११ ।। । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । ० परमात्मा में परस्पर विरोधी ऐसे तीन गुण बताये हैं : १. करूणा, २.
तीक्ष्णता और ३. उदासीनता। ० परमात्मा में परदुःखच्छेदन की इच्छारुप करुणा नहीं है, परन्तु
अभयदानस्वरूप करुणा होती है। ० कर्तृत्व का अभिमान वीतराग में नहीं होता है, वे ज्ञाता-द्रष्टा होते हैं,
यही उनकी उदासीनता होती है। संसारी जीवों की उदासीनता निराशारूप
होती है, ग्लानिरूप होती है, उपेक्षारूप होती है। ० हमें सभी बातों में सापेक्ष दृष्टि से दर्शन-चिन्तन करना है। सापेक्ष दृष्टि
से दर्शन-चिन्तन होगा तो राग-द्वेष की तीव्रता दूर होगी। । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । पत्र : ११
श्री शीतलनाथ स्तवना
प्रिय चेतन, धर्मलाभ! तेरा पत्र मिला। पारिभाषिक शब्दों में उलझना मत। धीरे-धीरे पारिभाषिक शब्दों से तू परिचित हो जायेगा। श्री आनन्दघन-चौबीसी' के माध्यम से तुझे जिनागमों के पारिभाषिक शब्दों का अध्ययन प्राप्त होगा।
श्री सुविधिनाथ की स्तवना में परमात्म-पूजा के विषय में अच्छा मार्गदर्शन मिला। प्रतिपत्ति-पूजा की श्रेष्ठता बताई गई। 'प्रतिपत्ति पूजा' की परिभाषा इस प्रकार की गई है - 'अविकलाप्तोपदेशपालना' आप्त पुरुषों के उपदेश का यथार्थ पालन, प्रतिपत्ति पूजा है।
परमात्मा का स्मरण, दर्शन, पूजन, स्तवन...करने से परमात्मा से आन्तरप्रीति दृढ़ हो जाती है। परमात्मप्रेमी मन, परमात्मा के विशिष्ट गुणों का दर्शन करने लगता है। श्री शीतलनाथ भगवंत की स्तवना में योगीश्वर आनन्दघनजी, स्याद्वाद के माध्यम से परमात्मा के विशिष्ट गुणों का दर्शन करते-करवाते हैं। अर्थ की चमत्कृति से यह स्तवना सुरुचिपूर्ण बनी है।
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