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पत्र ८
५७ अघहर अघमोचन धणी
मुक्ति परमपद-साथ.... ललना ।।७।। एम अनेक अभिधा धरे
अनुभव-गम्य विचार.... ललना ते जाणे तेहने करे
आनंदघन अवतार.... ललना ||८|| श्री आनंदघनजी, भक्तिरस में निमग्न होकर, श्री सुपार्श्वनाथजी की स्तवना के माध्यम से परमात्मा तीर्थंकर देव के अनेक गुणनिष्पन्न नामों को गा रहे हैं। भक्त हृदय में से प्रवाहित हुई यह परमात्मा की बिरदावली है। यह स्तवना, परमात्मा के गुणों की परिचय-पुस्तिका ही है।
कविराज अपनी ही आत्मा को संबोधित करते हुए कहते हैं- हे आत्मन्! भावपूर्ण हृदय से तू सुपार्श्वनाथ भगवान को वंदन कर | वे सभी प्रकार की सुख-संपत्ति देने वाले हैं और दुःखपूर्ण संसार-सागर के ऊपर सेतु-समान हैं, यानी पुल हैं | उस पुल पर चलकर संसार-सागर को पार कर सकते हैं।
चेतन, जो परमात्मा की भक्ति करता है, वह श्रेष्ठ सुख-संपत्ति पाता है और जो परमात्मा की आज्ञाओं का पालन करता है, वह संसार-सागर को तैर जाता है। परमात्मा उसके लिए पुल बन जाते हैं!
परमात्मा शान्त-सुधारस के महोदधि हैं। यह महोदधि कभी भी सुखता नहीं है। तालाब, सूर्य के प्रचण्ड ताप से सूख जाता है, सरोवर भी कभी सूख जाता है, परन्तु समुद्र कभी नहीं सूखता है। परमात्मा का शान्तरस निरन्तर प्रवाहित रहता है।
परमात्मा के प्रभाव का वर्णन करते हुए योगीश्वर कहते हैं : सात महाभय टालतो, सप्तम जिनवर देव! ___ श्री सुपार्श्वनाथ सातवें तीर्थंकर हैं, और वे सात महाभयों को दूर करते हैं! यहाँ पर कविराज ने सात के अंक का महत्व बताया है। यूँ तो सभी तीर्थंकर सात भयों को दूर करने वाले होते हैं। परन्तु, सात महाभय कैसे दूर होते हैं, उसके लिए साधक आत्मा को क्या करना पड़ता है, वह कहते हैं
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