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पत्र ७
५० कनकोपलवत् पयडी-पुरुष तणी रे, जोडी अनादि-स्वभाव
कनक = सोना, उपल = पाषाण | सोने की खान में जो सोना पाया जाता है, वह पत्थर में पाया जाता है। पत्थर और सोना संयुक्त होता है। वहाँ जाकर, खान में काम करनेवालों से पूछे कि 'सोना और पत्थर का संयोग कब हुआ?' तो क्या जवाब मिलेगा? अनादि! सोना और पत्थर का संयोग अनादि है। वैसे कर्म और आत्मा का संयोग अनादि है। कभी भी प्रारंभ नहीं हुआ संयोग का।
सांख्य दर्शन में कर्म को 'प्रकृति' [पयडी] कहते हैं और आत्मा को 'पुरुष' कहते हैं। कविराज ने यहाँ पर 'पयडी-पुरुष' शब्दों का प्रयोग सांख्यदर्शनानुसार किया है। प्रकृति-पुरुष की जोड़ी 'अनादि' स्वभाव की है। ऐसा मत समझना कि पहले अकेली आत्मा थी और बाद में कर्म उसको चिपक गये! अथवा, वेदांत दर्शन जैसे कहता है कि ईश्वर की इच्छा हुई कि मैं एक हूँ, अनेक हो जाऊँ! और उसने सृष्टि की रचना कर डाली। वैसे आत्मा को ऐसी इच्छा कभी नहीं हुई कि मैं शुद्ध हूँ.... कर्मों से मैं बंध जाऊँ और अशुद्ध हो जाऊँ। ___ एक बार आत्मा संपूर्ण शुद्ध हो जाती है, कर्मों से मुक्त हो जाती है, बाद में वह कभी भी [अनन्तकाल] अशुद्ध नहीं होती, कर्म उसको चिपक नहीं सकते। अन्य-संजोगी जिहां लगे आतमा रे, संसारी कहेवाय
जब तक आत्मा अन्य-संयोगी है, यानी कर्मों से बंधी हुई है, तब तक वह 'संसारी' आत्मा कहलाती है। अर्थात्, आत्मा जब कर्मों से रहित होती है, तब वह 'मुक्त' कहलाती है।
चेतन, मन में दूसरा प्रश्न भी पैदा हो सकता है : आत्मा के साथ कर्म क्यों बंधते हैं? कर्मबंधन के कौन से कारण होते हैं? और कौन से कारणों से कर्मबंधन टूटते हैं?
श्रीमद् आनन्दघनजी इसी प्रश्न का समाधान करते हुए कहते हैंकारण जोगे हो बांधे बंधने रे, कारण मुगति मूकाय, 'आश्रव' 'संवर' नाम अनुक्रमे रे, हेय-उपादेय सुणाय....
जीवात्मा मन-वचन-काया से, कर्मबंध के कारणों का सेवन करने से
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