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पत्र ७
४९ शब्द है, इसका अर्थ है स्थिति । 'अणुभाग' का अर्थ है रस और 'प्रदेश' का अर्थ है कर्मों का समूह ।
कर्म जब आत्मा से बंधते हैं, तब इन चार प्रकारों से बंधते हैं। कर्मों का प्रकृतिबंध होता है, यानी कर्मों का भिन्न-भिन्न फल देने का स्वभाव निश्चित होता है। स्थितिबंध यानी आत्मा के साथ कर्मों का बंधनकाल निश्चित होता है। अनुभागबंध यानी कर्मों की तीव्र या मंद अनुभूति का निर्णय होता है। प्रदेशबंध का अर्थ है, कर्म-पुद्गलों के समूह का आत्मा के साथ सम्बन्ध ।
कर्म के मूल भेद आठ हैं। ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय, अंतराय, नाम, गोत्र, आयुष्य और वेदनीय ।
कर्म के उत्तर-अवान्तर भेद हैं-१५८ ।
चेतन, यहाँ संक्षेप में ही बता रहा हूँ। विस्तार से तुझे समझना है, तो तू 'प्रशमरति-विवेचन' पढ़ना । घाती-अघाती हो बंधोदय उदीरणा रे, सत्ता कर्म-विच्छेद
जो कर्म आत्मा के मूल गुणों (ज्ञान-दर्शन वगैरह) का घात करते हैं, वे घाती कर्म कहलाते हैं। जो कर्म आत्मा के उत्तर गुणों [शरीर, इन्द्रिय, आयुष्य, सुख-दुःख वगैरह] का घात करते हैं, वे अघाती कर्म कहलाते हैं। 'बंध' का अर्थ है, आत्मा के साथ कर्मों का सम्बन्ध | यह बंध होता है दूध और पानी जैसा। लोहे और अग्नि जैसा। 'उदय' का अर्थ है, बंधे हुए कर्मों का फल भोगना । 'उदीरणा' यानी बंधे हुए कर्म अपने निश्चित समय के पहले, विशेष प्रयत्न से उदय में लाये जायें और भोग लिये जायें। ‘सत्ता' यानी बंधे हुए कर्मों का कुछ भी प्रतिभाव बताये बिना उदयकाल तक आत्मा में रहना । 'कर्मविच्छेद' यानी आत्मा ज्यों-ज्यों ऊपर-ऊपर के गुणस्थानक पर जाती है, त्यों-त्यों कुछ कर्म नष्ट होते जाते हैं। कोई कर्म बंधता नहीं है, कोई कर्म उदय में आता नहीं है, किसी कर्म की उदीरणा नहीं हो पाती है.... और कोई कर्म आत्मा से ही अलग हो जाता है।
चेतन, तेरे मन में यह प्रश्न पैदा हो सकता है कि 'आत्मा को कर्म कब लगे? हजार साल पूर्व, लाख वर्ष पूर्व.... करोड़ वर्ष पूर्व....? कब लगे?' इस प्रश्न का समाधान करते हुए योगीश्वर कहते हैं
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