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पत्र ७
४८ पद्मप्रभ जिन! तुझ मुझ आंतरुं रे, किम भांजे भगवंत?
___ कर्म विपाके कारण जोईने रे, कोई कहे मतिमंत.... पयइ-ठिइ-अणुभाग-प्रदेशथी रे, मूल-उत्तर बहु भेद,
घाती-अघाती हो बंधोदय-उदीरणा रे, सत्ता कर्मविच्छेद.... कनकोपलवत् पयडी-पुरुष तणी रे, जोडी अनादि स्वभाव,
अन्य संजोगी जिहां लगे आतमा, संसारी कहेवाय.... कारण जोगे हो बांधे बंधने रे, कारण मुगति मूकाय,
आश्रव-संवर नाम अनुक्रमे, हेय-उपादेय सुणाय.... 'युं जन करणे' हो अंतर तुझ पड्यो रे, गणकरणे करी भंग,
ग्रंथ-उक्ते करी पंडित जन कह्यो रे, अंतर भंग सअंग.... तुझ-मुझ अंतर, अंतर भांजशे रे, वाजशे मंगल तूर, ।
जीव-सरोवर अतिशय वाधशे रे, आनंदघन रसपूर.... हे पद्मप्रभ जिन! मैं अन्तरात्मा हूँ, आप परमात्मा हैं, अपना यह अन्तर कैसे दूर होगा? आप अब अन्तरात्मा की भूमिका पर आ नहीं सकते, मैं आपकी भूमिका पर आ सकता हूँ। मुझे ही आपके पास आना पड़ेगा.... आना चाहता हूँ.... परन्तु पहुँच नहीं पा रहा हूँ। अपना भेद मिटना चाहिए | मैंने एक प्रज्ञावंत पुरुष से यह प्रश्न पूछा। उन्होंने कहा : आत्मा और परमात्मा का, जीव और शिव का भेद है, कर्मों की वजह से। जब तक आत्मा कर्मों से बंधी हुई है, तब तक आत्मा-आत्मा ही रहेगी। कर्मों के बंधन टूट जाने पर, वही आत्मा परमात्मा बन जायेगी। आत्मा परमात्मा का अंतर मिट जायेगा। ‘सादि-अनंत' मिलन हो जायेगा परमात्मा से।
उन कर्मों को आत्मा से दूर करने के लिए, कर्मों का ज्ञान-विज्ञान प्राप्त करना पड़ेगा | बहुत सूक्ष्म और गहन है, कर्म का तत्त्वज्ञान । फिर भी बुद्धिमान मनुष्य पा सकता है, वह तत्त्वज्ञान | पयइ-ठिई-अणुभाग-प्रदेशथी रे, मूल-उत्तर बहु भेद
‘पयई' प्राकृत भाषा का शब्द है, इसका अर्थ है प्रकृति! 'ठिई' भी प्राकृत
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