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पत्र ७
४७ ।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।। ० आत्मा और परमात्मा का, जीव और शिव का भेद है कर्मों की वजह
से। उन कर्मों को आत्मा से दूर करने के लिए कर्मों का ज्ञान-विज्ञान प्राप्त करना पड़ेगा। ० सांख्यदर्शन में आत्मा को पुरुष कहते हैं.... कर्म को प्रकृति कहते हैं। ___ पुरुष-प्रकृति की जोड़ी अनादि स्वभाव की है। ० मेरी आत्मा में आप प्रतिबिंबित होने लगोगे तब जीवन के प्रांगण में
मंगल वाद्य बजने लगेंगे, आत्म-सरोवर में प्रेम की बाढ़ आयेगी। । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । पत्र : ७
श्री पद्मप्रभ स्वामी स्तवना
प्रिय चेतन, धर्मलाभ! तेरा पत्र मिला।
श्री सुमतिनाथ भगवंत की स्तवना ने तेरे हृदय को रसप्लावित कर दिया.... और 'समर्पण' की तीव्र इच्छा पैदा हुई-जानकर आनन्द हुआ।
श्री पद्मप्रभ स्वामी की स्तवना में श्रीमद् आनन्दघनजी ने एक नयी ज्ञानदृष्टि प्रदान की है। 'आत्मा ही परमात्मा है, तो फिर बहिरात्मा और अन्तरात्मा का भेद क्यों? अन्तरात्मा और परमात्मा का भेद क्यों? यह प्रश्न पैदा हुआ उनके मन में और समाधान भी पाया उन्होंने शास्त्रदृष्टि से।
गेय काव्य में गहन तत्त्वज्ञान की बातें बता देना, सरल काम नहीं है। उनकी उच्चतम कवित्व-शक्ति का, इन स्तवनाओं से परिचय होता है। हालाँकि जिनशासन के पारिभाषिक शब्दों से अपरिचित लोगों को काव्य अटपटा सा लगेगा, परन्तु जिस दर्शन का अध्ययन करना हो, उस दर्शन के पारिभाषिक शब्दों का ज्ञान प्राप्त करना ही पड़ता है।
चेतन, इस स्तवना में बहुत अपरिचित पारिभाषिक शब्द हैं, घबराना मत! शब्दों को कुछ अंश में तो समझाता चलूँगा और कुछ तुझे अध्ययन से सीखना होगा!
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