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पत्र ७
५१ कर्मबंध करता है। कर्मबंध के कारणों को 'आश्रव' कहते हैं। मुख्य आश्रव पाँच हैं-मिथ्यात्व, अविरति, कषाय, योग और प्रमाद । आश्रव के ४२ प्रकार भी बताये गए हैं। इन्द्रिय-५, कषाय-४, अव्रत-५, योग-३ और क्रिया-२५।
मन-वचन-काया से जीवात्मा जब मुक्त होने के कारणों का सेवन करता है, तब वह कर्म बंधनों से मुक्त होता है। इन कारणों को 'संवर' कहते हैं 'संवर' | के ५७ प्रकार बताये गये हैं-समिति-५, गुप्ति-३, परिषह-२२, यतिधर्म-१०, भावना-१२ और चारित्र-५ |
आश्रव हेय है, यानी त्याज्य है। संवर उपादेय है, यानी आदरणीय है, आराध्य है। आश्रव संसार में भटकाने वाला है, संवर संसार से पार उतारने वाला है। युं जनकरणे हो अंतर तुज पड्यो रे.... गुणकरणे करी भंग.... __ हे भगवंत! 'तुज-मुज-अंतर' क्यों पड़ा है, इसका मूल कारण मुझे ज्ञात हो गया है। वह कारण है 'युंजन करण'| आत्मा को कर्मों से लिप्त करनेवाला गलत पुरुषार्थ मैं करता रहता हूँ, फिर अपना अंतर कैसे मिट सकता है?
'युज्' धातु से 'युंजन' शब्द बना है। 'युज्' का अर्थ होता है, जोड़ना। आत्मा का कर्मों से जुड़ना, उसे कहते हैं युंजनकरण। __ हे वीतराग! अब मुझे 'गुणकरण' करना होगा। आत्मगुणों को प्रगट करनेवाला धर्मपुरुषार्थ करना होगा। भगवंत, मैं अब निरंतर आत्मगुणों का ध्यान करूँगा। आत्मगुणों की रमणता करने का अभ्यास करूँगा। प्रतिदिन.... अल्प क्षणों के लिए भी मेरी आत्मा को स्थिर और निर्मल बनाकर, उसमें आपका दर्शन करने का प्रयत्न करूँगा। तुज-मुज आंतर अंतर भांजशे रे, वाजशे मंगल तूर जीव-सरोवर अतिशय वाधशे रे, आनन्दघन रसपूर....
प्रभो, बाहर का अन्तर तो जब दूर होगा तब होगा, अभी तो मुझे आंतरिक अंतर मिटाना है । अन्तर को छूमंतर कर देना है। जब आंतरिक दूरी दूर होगी, मेरी आत्मा में आप प्रतिबिंबित होने लगोगे.... तब....? जीवन के प्रांगण में मंगल वाद्य बजने लगेंगे.... आत्म सरोवर में प्रेम की बाढ़ आयेगी.... प्रचुर आनंद की लहरें आकाश को छूने लगेंगी....|
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