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पत्र ६
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सुमति-चरणकज आतम - अरपणा, दरपण जिम अविकार, सुज्ञानी,
मति तरपण बहु- सम्मत जाणिए, परिसरपण सुविचार सुज्ञानी. त्रिविध सकल तनुधरगत आतमा, बहिरातम धुरि भेद, सुज्ञानी...!
बीजो अंतर आतम तीसरो, परमातम अविच्छेद... सुज्ञानी... ! आतम बुद्धे कायादिक ग्रह्यो, बहिरातम अघरूप सुज्ञानी ... !
कायादिकनो हो साखीधर रह्यो, अंतर आतमरूप सुज्ञानी... ! ज्ञानानन्दे हो पूरण पावनो, वर्जित सकल उपाध, सुज्ञानी...!
अतीन्द्रिय गुण-गण-मणि आगरु, एम परमातम साध, सुज्ञानी...! बहितराम तजी अंतर आतमा, रूप थई स्थिरभाव सुज्ञानी !
परमातमनुं हो आतम भाववुं, आतम- अर्पण दाव, सुज्ञानी ! आतम अर्पण वस्तु विचारतां, भरम टले मतिदोष सुज्ञानी ! परम पदारथ संपत्ति संपजे, आनंदघन रसपोष सुज्ञानी ! ● समर्पण!
● परमात्मा के चरणों में समर्पण!
• कमल जैसे निर्लेप चरणों में समर्पण!
● दर्पण जैसे विकार - विहीन चरण-कमल में समर्पण!
निर्लेप-निर्विकार चरणों में समर्पण करने के लिए, विषयासक्ति से मुक्त होने की तमन्ना चाहिए। निर्लेप और निर्विकार होने की तीव्र इच्छा चाहिए ।
समग्रतया समर्पण तब होगा, जब मनुष्य अपने आग्रहों का विसर्जन करेगा। विसर्जन के बिना समर्पण संभव नहीं है । न अपनी स्वयं की कोई मान्यता रहे, न अपने स्वयं के कोई आग्रह रहे... तब सुमतिनाथ के चरणकमल में समर्पित हो सकते हैं । अहं - प्रेरित मान्यताएँ और आग्रह, दुर्मति है । दुर्मति का त्याग किये बिना सुमति के चरणों में समर्पण कैसे होगा ?
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बच्चे को जब तक अपने व्यक्तित्व का बोध नहीं होता है .... वह माता के प्रति समर्पित होता है । समर्पण का वह बीज है । परमात्मा के प्रति समर्पण, वह वृक्ष होता है। सच्चा प्रेम, सच्चा समर्पण स्वयं को भूलने से ही हो सकता है। भक्तियोग के आराधक सज्जन पुरुषों को ऐसा समर्पण ही अभिप्रेत है ।