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पत्र ६
४१ सुमति-सुविचारों की दुनिया में, इस समर्पण-भाव से प्रवेश होता है। परमात्मा-चरणों में समर्पित मनुष्य के हृदय में दिन-रात सुविचार ही बने रहते हैं। सभी मनुष्यों के लिए यह बात संभव नहीं होती है। कैसा मनुष्य समर्पित हो सकता है, वह बात बताने के लिए कविराज तीन प्रकार की आत्माएँ बताते
त्रिविध सकल तनुधर आतमा, बहितराम धुरिभेद। बीजो अंतर-आतम, तीसरो परमातम अविच्छेद.
शरीरधारी जीवात्माएँ तीन प्रकार की होती हैं- बहिरात्मा, अंतरात्मा और परमात्मा । 'धुरि भेद' का अर्थ है प्रथम प्रकार और 'अविच्छेद' का अर्थ है अखंड, अविनाशी।
अब, बहिरात्मा का स्वरूप बताते हुए कहते हैंआतम बुद्धे कायादिक ग्रह्यो, बहिरातम अघरूप.
शरीर, इन्द्रियाँ वगैरह में ही जो आत्मा मानता है, 'शरीर ही आत्मा है, ऐसी मान्यता रखता है, वह बहिरात्मा है | पंचभूत से शरीर पैदा होता है और पंचभूत में विलीन हो जाता है! शरीर से भिन्न कोई आत्मतत्त्व नहीं है। परलोक में जानेवाली कोई आत्मा नहीं है...! ऐसी भ्रमणाओं में आबद्ध बहिरात्मा शब्दरूप-रस-गंध और स्पर्श के असंख्य सुखों की कामना करता रहता है, भोगउपभोग में आसक्त बना रहता है और अनन्त भवसागर में खो जाता है। 'बहिरातम अघरूप' का अर्थ है बहिरात्मा दोषों से-पापों से भरपूर होता है। चूंकि पाप-पुण्य का भेद वह मानता ही नहीं है।
अन्तरात्मा का स्वरूप बताते हुए कहते हैंकायादिकनो हो साखीधर रह्यो, अंतर आतम रूप.
'शरीर में शरीर से भिन्न आत्मा मात्र साक्षीभाव से रही हुई है, ऐसी मान्यता होती है, अन्तरात्मा की। हालाँकि, शरीर से भिन्न आत्मतत्त्व की श्रद्धा-मान्यता होने के बाद, आत्मस्वरूप के निर्णय में...अनेक मान्यताओं में से वह गुजरता है! यदि वह वैदिक परंपरा में जीता है तो 'आत्मा नित्या है,' ऐसी एकान्त मान्यता होगी। बौद्ध परंपरा में जीता है तो 'आत्मा अनित्य है,' ऐसी एकान्त मान्यता होगी। जैन परंपरा में जीता है तो 'आत्मा नित्यानित्य है, ऐसी अनेकांत मान्यता होगी कि जो मान्यता तर्कसिद्ध एवं यथार्थ है।
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