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पत्र ६ ।। । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । ० परमात्मा के चरणों में समर्पित हो जाना है। 'अहं' को भूल जाना है,
'अर्ह' घटघट में गूंजना चाहिए। ० समग्रतया समर्पण तब होगा जब मनुष्य अपने आग्रहों का विसर्जन
करेगा। विसर्जन के बिना समर्पण संभव नहीं है। ० अन्तरात्मदशा प्राप्त होने पर, उस दशा में स्थिरता प्राप्त करने का
पुरुषार्थ करना पड़ेगा। ज्ञानयोग और भक्तियोग में निरत रहने से
अन्तरात्मदशा में स्थिरता आती है। ० समर्पण से परमात्मदशा प्राप्त होती है। ।। । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । पत्र : ६
नाथ स्तवना
प्रिय चेतन, धर्मलाभ!
इस समय तेरे पत्र का इन्तजार नहीं करना पड़ा । विषय अभ्यास का तो है ही। तेरे मन में तत्त्वजिज्ञासा पैदा हो, यह मैं चाहता हूँ। इन स्तवनाओं के अध्ययन से, चिन्तन-मनन से अवश्य तत्त्वजिज्ञासा पैदा होगी और तू ज्ञानानन्द का आस्वाद करेगा। __ श्री अमिनन्दन स्वामी की स्तवना में कविराज ने कहादरिसन दुर्लभ सुलभ कृपा थकी
परमात्मा का दर्शन होना दुर्लभ है। असंभव जैसा है। परन्तु यदि परमात्मा की कृपा हो जाय, तो दुर्लभ दर्शन सुलभ हो जाय! उस परम तत्त्व की कृपा प्राप्त कैसे हो? मात्र श्रद्धा से भी कृपा नहीं मिल जाती है! कृपा प्राप्त करने का अनमोल उपाय, श्री सुमतिनाथ भगवंत की स्तवना में कविराज-योगीश्वर ने बताया है।
वह मार्ग है, समर्पण का! संपूर्ण समर्पण का! कोई शर्त नहीं...कोई आकांक्षा नहीं...मात्र समर्पण! मन-वनच-काया का समर्पण! परमात्मा के चरणों में समर्पित हो जाना है। 'अहं' को भूल जाना है, 'अर्हम्' घटघट में गूंजना चाहिए।
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