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पत्र २५
२३१ ___परमात्मा से निरुपाधिक प्रीति बाँध लेनी है। उस प्रीति में से पूर्णता प्राप्त करने की अपूर्व शक्ति प्राप्त होती है। सहजता से पूर्णता की ओर गति होती रहती है।
प्रीति बाँधने में काव्य-भक्तिगीत-स्तवन उपयोगी बनता है। चूंकि काव्य शीघ्र हृदय को स्पर्श करता है! मेरे साधुजीवन के प्रथम वर्ष में ही.... शत्रुजय गिरिराज के ऊपर भगवान शान्तिनाथ के मंदिर में मैंने एक मुनिराज के मुख से 'सुमति चरणकज आतम अरपणा रे....' काव्य सुना था! कितनी मधुर आवाज थी वह! मेरे हृदय को स्पर्श कर गया था वह स्तवन। हालाँकि अर्थबोध तो मुझे ज्यादा नहीं हुआ था.... परंतु शब्दों का भी जादू होता है न! आनन्दघनजी योगीपुरुष थे.... उनकी शब्दरचना में जादू होना स्वाभाविक है!
स्वर मधुर हो.... राग का ज्ञान हो.... उच्चारण स्पष्ट हो और मंदिर में शान्ति हो! बस, इन स्तवनाओं को गाते रहो.... अथवा सुनते रहो.... शब्दों का जादू अनुभव करोगे।
चेतन, आनन्दघनजी के स्तवनों के प्रति मेरा आकर्षण तो साधुजीवन के प्रथम वर्ष से ही जगा था, बाद में मेरे परमोपकारी पूज्य गुरुदेवश्री ने एक बार पहले और दूसरे स्तवनों पर हम साधुओं के सामने रसभरपूर विवेचना की थी। मैंने उसी समय विवेचना लिख ली थी। गुजराती भाषा में-'प्रीतनी रीत' और 'प्रभुनो पंथ'-इस नाम की दो पुस्तिकायें भी उस समय छप गई थी।
फिर तो कई वर्ष बीत गये! और श्रमणजीवन के ३४ वें वर्ष में इस विवेचना का प्रारंभ किया एवं ३६ वें वर्ष में विवेचना पूर्ण हुई।
प्रारंभ किया था, कुल्पाकजी तीर्थ में और पूर्णाहुति हुई गदग [कर्णाटक में! परंतु ज्यादातर विवेचना लिखी गई है कोइम्बतूर में। इस दृष्टि से हमारी दक्षिण-प्रदेश की यात्रा का यह स्मृतिचिह्न बन गया न?
चेतन, इन स्तवनाओं में परमात्मप्रीति और परमात्मभक्ति के साथ-साथ गहन और गंभीर तत्त्वज्ञान भरा हुआ है। कितने-कितने विषयों का समावेश किया है! इससे मालूम होता है कि योगीराज का ज्ञान कितना विशाल और गंभीर होगा। भक्तियोग के साथ आचार मार्ग का भी प्रतिपादन किया है, ध्यान, योग और अध्यात्म के विषय में भी सुंदर स्पष्टता की है। नय, निक्षेप और स्याद्वाद जैसे गंभीर पदार्थों को भी स्पर्श किया है। यथोचित न्याय किया है। वेदांत, बौद्ध आदि दर्शनों के विषय में अनेकान्तदृष्टि से रसपूर्ण सामंजस्य
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