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पत्र २५
२३०
उपसंहार
प्रिय चेतन, धर्मलाभ!
कल ही चौबीसी की विवेचना पूर्ण हुई! हृदय हर्ष से भर गया! एक महान श्रुतधर और योगीपुरुष की काव्य-रचना पर विवेचन लिखने का मेरे जैसे अल्पज्ञानी को सौभाग्य मिल गया....! विवेचना लिखने के निमित्त से इस गहन और गंभीर काव्यों का अवगाहन.... चिंतन-मनन करने का अवसर मिल गया मुझे....
इस बात का मुझे अपूर्व संतोष मिला है। हालाँकि इस विवेचना में विद्वानों को अनेक त्रुटियाँ दृष्टिपथ में आयेंगी, कोई-कोई बात हास्यास्पद भी लगेगी.... परंतु वे कृपावंत विद्वज्जन मुझे क्षमा करेंगे। चूँकि मैंने तो यह विवेचना मेरे जैसे अल्पज्ञानी तत्त्वजिज्ञासुओं के लिये लिखी है। महान् योगी की इस काव्य रचना का आस्वाद सामान्य बुद्धि का मनुष्य भी ले सके.... इस दृष्टि से मैंने यह यथाशक्ति.... यथाबुद्धि प्रयास किया है।
'ज्ञानसार' नाम के मुनिराज ने लिखा हैआशय आनन्दघन तणो, अति गंभीर उदार, बालक बाहु पसारी, कहे उदधि विस्तार!
मेरी भी बालक जैसी ही चेष्टा रही है इस विवेचना में। फिर भी यह विवेचना 'स्वान्तः सुखाय' तो अवश्य बनी है। लिखते-लिखते कभी योगीराज के प्रति अप्रतिम श्रद्धा पैदा हुई थी, कभी आँखों में से हर्ष के आँसू भी बहे थे.... और कभी भक्तिभाव का उत्कर्ष भी अनुभव किया था।
चेतन, इस चौबीसी में प्रीति से पूर्णता पाने का स्पष्ट मार्गदर्शन मिलता है। 'परमात्मा से प्रीति कर लो, पूर्णता के शिखर पर पहुँच जाओगे!'
जैसे वैराग्य से वीतराग बना जाता है, वैसे प्रीति से परमात्मा बना जा सकता है! जितनी शक्ति वैराग्य में है, उससे भी ज्यादा शक्ति प्रीति में है। इसलिये योगीराज ने स्तवना का प्रारंभ प्रीति से किया है और अंत पूर्णता में बताया है।
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