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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पत्र २ अलबत्ता, उनकी काव्यरचनाएँ सरल नहीं हैं... सुबोध भी नहीं हैं... फिर भी उन काव्यों में माधुर्य है... रसिकता है... भावोद्रेक है और अगम-अगोचर की मस्ती है। चेतन, प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभदेव की स्तवना उन्होंने जो की है, वह लिखता हूँ : ऋषभ-जिनेश्वर प्रीतम माहरो, और न चाहूं कंत! रीझ्यो साहिब संग न परिहरे, भांगे सादि-अनन्त... प्रीत-सगाई जग में सहु करे, प्रीत-सगाई न कोय, प्रीत-सगाई निरुपाधिक कही, सोपाधिक धन खोय... कोई कंत कारण काष्ट भक्षण करे, मल| कंत ने धाय, ए मेलो नवि कहीय संभवे, मेलो ठाम न ठाय... कोई पतिरंजन अति घणुं तप करे, पतिरंजन तनताप, ए पतिरंजन में नवि चित्त धर्यु, रंजन धातु मिलाप... कोई कहे लीला अलख-ललख तणी, लख पूरे मन आश, दोषरहितने लीला नवि घटे, लीला दोष-विलास... चित्त प्रसन्ने रे पूजनफल कडं, पूजा अखंडित एह, ___कपट रहित थई आतम-अर्पणा आनन्दघन-पद रेह... आनन्दघनजी परमात्मा से प्रेम-संबंध करने चले हैं। वे वचनबद्ध हो जाते हैं : 'हे ऋषभजिन! तू ही मेरा प्रीतम है... तेरे सिवा मेरा दूसरा कोई कंत नहीं है। जो वीतराग है, जो सर्वज्ञ-सर्वदर्शी है-वो ही मेरा कंत है, प्रीतम है।' । हालाँकि परमात्मा के साथ प्रीति एकतरफा ही होती है। संसार की प्रीति उभय की होती है। परमात्मा को प्रसन्न करने के लिए जीवनपर्यंत उनके साथ प्रीत करते रहना है। बस, एक बार परमात्मा प्रसन्न हो गये... कि फिर कभी भी वे बिछड़ने वाले नहीं हैं। एक बार परमात्मा की ओर से प्रीति प्राप्त हुई... अनन्तकाल तक वह प्रीति भंग होनेवाली नहीं! इसको शास्त्रीय भाषा में 'सादि-अनंत' कहते हैं। 'भांगे' का अर्थ होता है 'प्रकार' | 'सादि-अनंत, प्रकार की प्रीति कवि को अभिप्रेत है। प्रीत हो जाय और टूट जाय, वैसी प्रीति क्या काम की? For Private And Personal Use Only
SR No.009635
Book TitleMagar Sacha Kaun Batave
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2010
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size2 MB
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