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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पत्र २ __परंतु संसार में लोग जो एक-दूसरे से प्रीति करते हैं, प्रेम करते हैं... वह प्रीति 'सोपाधिक' होती है। सोपाधिक = उपाधिसहित । उपाधि = स्वार्थ । किसी न किसी स्वार्थ से जो प्रीति की जाती है, वह प्रीति नहीं है। रूप के माध्यम से, रुपयों के माध्यम से या किसी इन्द्रियजन्य सुखों के माध्यम से होनेवाला प्रेम, प्रेम नहीं है... वह सौदा होता है। प्रीत निःस्वार्थ होती है। जिसमें कोई वैषयिक सुख की कामना न हो, भौतिक सुखों की अभिलाषा न हो... वह प्रीत सच्ची प्रीत होती है। परमात्मा के साथ निरुपाधिक प्रीति ही करनी चाहिए। यानी परमात्मा से कोई वैषयिक सुखों की याचना-प्रार्थना नहीं करनी चाहिए। 'मेरे पति से मेरा प्रेम सच्चा था', यह बात सिद्ध करने के लिए कोई स्त्री पति के मृतदेह को अपने उत्संग में लेकर चिता में जल जाती है। इस प्रकार मरने से दूसरे जन्म में पुनः वही पति मिलता है'- ऐसी भ्रान्त धारणा भी दुनिया में प्रचलित थी और हजारों महिलाओं ने इस भ्रान्ति में अग्निस्नान किया था। कवि कहते हैं कि 'ए मेलो नवि कही य संभवे ।' पति-पत्नी का इस प्रकार जलकर मरने से पुनःमिलन संभवित ही नहीं है। कुछ लोग परमात्मा को प्रसन्न करने के लिए घोर तपश्चर्या करते हैं... घोर कष्ट सहन करते हैं। वे लोग ऐसे खयाल में होते हैं कि 'तपश्चर्या करनेवालों पर और कष्ट सहन करनेवालों पर परमात्मा प्रसन्न होते हैं।' कैसे-कैसे गलत खयाल दुनिया में प्रचलित हैं। आनंदघनजी स्पष्ट शब्दों में कहते हैं : 'ए पतिरंजन में नवि चित्त धर्यु ।' मैं ऐसे पतिरंजन को जरा भी पसंद नहीं करता हूँ। इस प्रकार प्रियतम ऐसे परमात्मा को प्रसन्न नहीं किये जा सकते हैं। चेतन, तेरे मन में प्रश्न उठेगा कि 'क्या, परमात्मा भक्त के ऊपर प्रसन्न होते हैं? प्रसन्न होने का अर्थ क्या?' ___ संसार में जैसे एक श्रीमंत गरीब के ऊपर प्रसन्न हो जाय और उसको हजार/दो हजार या लाख/दो लाख रुपये दे देता है, अथवा कोई देव-देवी किसी भक्त पर प्रसन्न होकर संतान का या समृद्धि का सुख दे देते हैं, उस प्रकार परमात्मा किसी भक्त ऊपर प्रसन्न नहीं होते हैं-यह बात स्पष्टता से समझना। अपना हृदय विशुद्ध बने, यानी कषाय-कल्मषों से मुक्त बने, वैषयिक वासनाओं से विरक्त बने, और विशुद्ध हृदय में परमात्मा का स्पष्ट प्रतिबिंब गिरता रहे... तब समझना कि परमात्मा अपने पर प्रसन्न हुए हैं। इसी दृष्टि से कवि ने कहा कि 'रंजन धातु मिलाप ।' For Private And Personal Use Only
SR No.009635
Book TitleMagar Sacha Kaun Batave
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2010
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size2 MB
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