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पत्र २ ।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।। ०किसी न किसी स्वार्थ से जो प्रीति की जाती है, वह प्रीति नहीं है। रूप
के माध्यम से, रुपयों के माध्यम से या किसी इन्द्रियजन्य सुखों के माध्यम से होने वाला प्रेम, प्रेम नहीं है। वह सौदा होता है। प्रीत निःस्वार्थ होती है। जिसमें कोई वैषयिक सुख की कामना न हो,
भौतिक सुखों की अभिलाषा न हो-वह प्रीत सच्ची प्रीत होती है। ० संसार में लोग जो एक-दूसरे से प्रीति करते हैं, प्रेम करते हैं, वह प्रीति
'सोपाधिक' होती है। । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । पत्र : २
श्री ऋषभदेव स्तवना
प्रिय चेतन, धर्मलाभ!
तेरा पत्र मिला। प्रत्युत्तर तुरन्त लिखना था, परंतु इसी विषय में चिंतनमनन चल रहा था! इसलिए कुछ विलंब हुआ है।
जिनशासन में परमात्म-स्तवना की जो एक सुंदर परंपरा चल रही है, उसको यदि शंकराचार्यजी पढ़ते तो वे जैनदर्शन को 'नास्तिक' नहीं कहते! जैनदर्शन में परमात्म-प्रीति एवं परमात्म-भक्ति को कितना महत्त्वपूर्ण बताया गया है-वह तो प्राकृत, संस्कृत, राजस्थानी एवं गुजराती भाषा में जो परमात्मस्तवनाएँ लिखी गई हैं, उसे पढ़ें तो ही समझा जा सके।
मैं तुझे, योगी आनंदघनजी ने जो २४ तीर्थंकरों की स्तवना की है, उन २४ स्तवनाओं का कुछ आस्वाद कराना चाहता हूँ। उन्होंने २४ काव्यों की रचना कर, २४ तीर्थंकरों के प्रति अपनी प्रीति-भक्ति के अपूर्व भावों को बहाये हैं।
आनन्दघन कोई सामान्य साधु... बाबा... जोगी नहीं थे। सर्वज्ञ-शासन के मर्म को उन्होंने पा लिया था। जिनोक्त तत्त्वों की गहराई में गये हुए थे वे महायोगी। ऐसा माना जाता है कि न्याय-विशारद उपाध्याय श्री यशोविजयजी के वे समकालीन थे। राजस्थान में मेड़ता सिटी में उनका स्वर्गवास हुआ था।
आनन्दघनजी जनसंपर्क से दूर रहते थे। सामाजिक प्रदूषणों से वे मुक्त रहे थे। इसलिए ही वे लोकभाषा में इतनी रसभरपूर काव्य-रचना कर पाये थे।
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