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पत्र २१
१७६ 'संकर-दोष' किसे कहते हैं, यह बताता हूँ
सुख का कारण है, आत्मा के चेतना वगैरह गुण और दुःख का कारण है, जड़ कर्मों का संयोग | यदि जड़ और चेतन को भिन्न नहीं मानें तो सुख-दुःख के सही कारण कैसे ज्ञात होंगे? सुखी होने की इच्छावाला क्या करेगा? उसको कोई स्पष्ट उपाय नहीं मिलेगा! पूरा घोटाला हो जायेगा। इस घोटाले को ‘संकर-दोष' कहते हैं। ___ अनेकान्तदृष्टि से यदि यह प्रतिपादन होता तो संकरदोष नहीं आता। पूर्ण
आत्माओं की अपेक्षा से यह कथन सही है। 'सच्चिदानन्दपूर्णेन पूर्णं जगदवेक्ष्यते।'
पूर्ण आत्मा सारे जगत को पूर्ण देखती है। अपूर्ण-पूर्ण का, जड़-चेतन का.... छोटे-बड़े का कोई भेद नहीं रहता उनके लिये। उन पूर्णात्मा के लिये सुख-दुःख का कोई प्रश्न नहीं रहता है, चूंकि वे स्वयं सुखपूर्ण.... आनन्दपूर्ण होते हैं।
यही वेदान्तदर्शन की दूसरी मान्यता बताते हैंएक कहे नित्य ज आतम तत्त, आतम-दरिसण लीनो....। __ आत्मदर्शन में लीन होने की इच्छावाला वेदान्ती [एक] कहता है-'आत्मा नित्य है।' आत्मदर्शन में लीन होने की इच्छा सराहनीय है, परंतु आत्मा को 'नित्य' मानने की बात, जो कि आग्रह से करते हैं, वह गलत है। आत्मा को सर्वथा नित्य मानने से दो दोष आते हैं। यानी यह मान्यता दोषयुक्त है, निर्दोष नहीं है। यह बता रहे हैंकृतविनाश अकृतागभ दूषण, नवि देखे मतिहीणो....
दार्शनिकों ने 'नित्य' की परिभाषा 'अपरिवर्तनशील' की है। जो नित्य होता है, उसमें परिवर्तन नहीं होता। जिसमें परिवर्तन होता है, वह नित्य पदार्थ नहीं होता। __ एक मनुष्य ने बहुत धर्माराधना की। उसने अच्छे पुण्यकर्म उपार्जन किये, वह मरकर देवगति में जाना चाहिए। यदि 'आत्मा' को नित्य मानें तो मनुष्य मरकर देव नहीं बन सकता। नित्य आत्मा में परिवर्तन संभव नहीं होता! तो फिर उसने जो धर्माराधना की वह व्यर्थ चली जायेगी! यह है 'कृतविनाश' नाम का दोष | जो धर्म किया उसका विनाश हो जायेगा। यानी उस का फल नहीं मिलेगा। ___ और यहाँ पर एक मनुष्य बहुत दुःखी है। पापों से दुःख आते हैं। उस मनुष्य को दुःख कैसे मिले? पूर्वजीवन में उसने पाप किये थे, इसलिए इस
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