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पत्र २१
१७७ जीवन में दु:ख मिले ।' ऐसा मानने पर तो आत्मा में परिवर्तन मानना पड़ेगा! यदि परिवर्तन [अनित्यता] नहीं मानते हैं, तो मानना पड़ेगा कि पाप नहीं किये फिर भी दुःख आये! इसको 'अकृतागम' दोष कहते हैं। __ 'आत्मा नित्य ही है'-ऐसा एकान्तवादी प्रतिपादन गलत है। यदि अनेकान्त दृष्टि से-'आत्मा नित्य भी है, अनित्य भी है,' ऐसा प्रतिपादन करते तो उपर्युक्त दोष नहीं आते। चूँकि द्रव्यार्थिक नय से आत्मा अनित्य है। परन्तु अल्प बुद्धिवाले [मतिहीणो] कैसे समझें?
अब बौद्धदर्शन की मान्यता बताते हैंसौगत मतरागी कहे वादी 'क्षणिक ए आतम जाणो....'
सौगत मत [बौद्धदर्शन] बाला बुद्धिमान [वादी] पुरुष कहता है, ‘आत्मा क्षणिक ही है।'
बौद्धदर्शन कहता है-'यत् सत् तत् क्षणिकम्' जो सत् है, वह क्षणिक है! आत्मा सत् है, इसलिए क्षणिक है! श्री आनन्दघनजी बौद्धवादी को कहते हैंबंध-मोक्ष सुख-दुःख नवि घटे एह विचार मन आणो....
यदि आत्मा को अनित्य-क्षणिक मानते हो, तो कर्म का बंध और कर्मों से मोक्ष कैसे होगा? चूँकि पहली क्षण जिसने पाप किया, दूसरी क्षण वह नहीं है, वह पाप करनेवाला तो मर गया! हत्या करनेवाला मर जाता है, सजा भोगनेवाला दूसरा होता है! धर्म करनेवाला मर जाता है, सुख भोगने वाला दूसरा होता है!
आत्मा को क्षणिक ही मानने पर ये सारे विसंवाद पैदा होते हैं! अनेकान्तदृष्टि से यानी पर्यायार्थिक नय से आत्मा को क्षणिक मानने पर बंध-मोक्ष के एवं सुख-दुख के विसंवाद पैदा नहीं होते हैं। परन्तु बौद्धदर्शन एकान्तवादी दर्शन है, वह अनेकान्तवाद को नहीं मानता है। ___ अब 'चार्वाक' मत की मान्यता बताते हैंभूत, चतुष्क-वर्जित आतम-तत्त सत्ता अलगी न घटे, ___ पृथ्वी, पानी, वायु और अग्नि, ये चार 'भूत' कहे जाते हैं। चार्वाकदर्शन कहता है-इन चार भूत के अलावा स्वतंत्र [अलगी] कोई आत्मतत्त्व नहीं है।' चार्वाक तो आत्मा के अस्तित्व को ही नहीं मानता है। श्री आनन्दघनजी उनको कहते हैं
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