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पत्र २१ कोई अबंध आतमतत्त्व माने, किरिया करतो दीसे....
सांख्यदर्शन मानता है-'विगुणो न बध्यते, न मुच्यते। विगुण आत्मा न बंधती है, न मुक्त होती है। आत्मा कमलपत्रवत् निर्लेप है।' फिर भी इस बात को माननेवाले अपने संप्रदाय के अनुसार क्रिया करते हुए दिखते हैं। इनको पूछा किकिरिया तणु फल कहो कुण भोगवे? हम पूछ्युं, चित्त रीसे
'आप जो क्रिया करते हो, उसका तण] फल कौन भोगेगा? जब आत्मा बंधती नहीं है और मुक्त ही है, तो फिर क्रिया क्यों करनी चाहिये, और क्रिया करते हो, तो उसका फल कौन भोगेगा? क्रिया से कर्म तो बंधते ही हैं! आप कहते हो कि आत्मा को कर्म बंधते नहीं! तो फिर क्रियाजन्य कर्म कहाँ जायेगा? कौन उस कर्मफल को भोगेगा?'
ऐसा प्रश्न पूछने पर उनको रीस आ गई! दुनिया में सही बात पूछने पर भी कुछ लोग नाराज हो जाते हैं।
यदि सांख्यदर्शन वाले इस बात को अनेकान्त दृष्टि से कहते तो मान्य हो सकती थी। सत्त्व-रजस्-तमस् भावों से आत्मायें मुक्त हो जाती हैं, उनको कर्मबंध नहीं होता है। परंतु जो सत्त्व-रजस्-तमस् भावों से भरे हुए हैं, वे तो कर्मबंध करते ही हैं। जीवों की अपेक्षा से उन्होंने सिद्धांत नहीं बनाया, इसलिए उनका सिद्धांत मान्य नहीं हो सकता है।
एक दूसरा मतजड़-चेतन ए आतम एक ज, स्थावर-जंगम सरिखो....!
'जड़ भी आत्मा है, चेतन भी आत्मा है.... सब एक ही आत्मा है! स्थिर और गतिशील.... सभी जीव समान है!'
वेदान्तदर्शन की यह मान्यता है। 'ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या' एक आत्मा ही सत्य है, बाकी सब मिथ्या है। इसका अर्थ-दुनिया में एक मात्र आत्मा ही है.... जो कुछ भी है, वह आत्मा है! और सभी आत्मायें समान हैं।'
इस मान्यता को दोषित बताते हुए कहते हैंसुख-दुःख ‘संकर'-दूषण आवे, चित्त विचारी जो परीखो....
इस मान्यता पर मन में विचार करोगे और तर्क के कसौटी-पाषाण पर परीक्षा करोगे तो ‘संकर' दोष दिखायी देगा।
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