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पत्र २१
१७४
मुनिसुव्रत जिनराय! एक मुझ विनति निसुणो.... आतम-तत्त्व कयुं जाणु जगद्गुरु ! एह विचार मुझ कहियो,
आतम-तत्त्व जाण्या विण चित्त-समाधि नवि लहियो.... मुनि. १ कोई अबंध आतमतत्त माने, किरिया करतो दीसे,
किरियातणु फल कहो कुण भोगवे, इम पूछ्युं चित्त रीसे....मुनि. २ जड़-चेतन ए आतम एक ज स्थावर जंगम सरिखो,
सुख-दुःख संकर दूषण आवे, धित्त विचारी जो परीखो.... मुनि. ३ एक कहे, 'नित्य ज आतमतत्त, आतम दरिसण लीनो, ___ कृतविनाश अकृतागम-दूषण नवि देखे मतिहीणो.... मुनि. ४ सौगतमत-रागी कहे वादी: 'क्षणिक ए आतम जाणो, ___ बंध-मोक्ष-सुख दुःख नवि घटे, एह विचार मन आणो.... मुनि. ५ भूत चतुष्क-वर्जित आतमतत्त, सत्ता अलगी न घटे,
अंध शकट जो नजरे न देखे, तो शु कीजे शकटे?.... मुनि. ६ एम कनेक वादिमतविभ्रम संकट पडियो न लहे,
चित्तसमाधि ते माटे पूछु, तुम विण तत्त कोई न कहे.... मुनि. ७ वलतु जगगुरु इणीपरे भाखे पक्षपात सब छंडी,
राग-द्वेष-मोह-पख वर्जित आतमशुं रढ़ मंडी.... मुनि. ८ आतमध्यान करे जो कोउ, सो फिर इण में नावे,
वागजाल बीजुं सहु जाणे एह तत्त्व चित्त चावे.... मुनि. ९ जिणे विवेक धरी ए पख ग्रहियो, ते तत्त्वज्ञानी कहिये,
श्री मुनिसुव्रत कृपा करो तो आनंदघन-पद लहिये.... मुनि. १० 'हे मुनिसुव्रत जिनेन्द्र, मेरी एक विनंती ध्यान से सुनें
हे जगद्गुरु, आत्मतत्त्व को मैं कैसा मानूं? शुद्ध आत्मा तत्त्वरूप से कैसी है, यह [एह] विचार मुझे बताने की कृपा करें। चूंकि आत्मतत्त्व को जाने बिना [विण] चित्त को निर्मल समाधि नहीं मिलती [नवि लहियो] है।'
दुनिया में आत्मतत्त्व के स्वरूप के विषय में अलग-अलग मान्यतायें देखने में आती हैं | इसलिए आत्मसाधक मनुष्य उलझ जाता है।
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