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पत्र २० ० नपुंसक के उदय से स्त्री संभोग और पुरुष संभोग-दोनों प्रकार की
इच्छा पैदा होती है। 'कामा परिणामा' यानी कामेच्छायें। परमात्मा की सभी कामेच्छायें छूट गई। वासनाजन्य सभी कार्य भी छूट गये। अब कोई कामना नहीं रहीं परमात्मा में | वे निष्कामी बन गये। करुणाभाव-करुणा के महासागर बन गये।
चार प्रकार के 'अनन्त' उन्होंने पा लिये० अनन्त ज्ञान, ० अनन्त दर्शन, ० अनन्त चारित्र,
० अनन्त वीर्य, दान-विघन बारी सह जनने अभयदान-पददाता, लाभ-विघन जगविघन निवारक! परम लाभ-रसमाता [दानविघन = दानान्तराय कर्म, लाभविघन = लाभान्तराय कर्म]
हे नाथ! आपने 'दानान्तराय' कर्म को दूर [वारी] किया। आपने सभी जीवों को अभयदान दिया। आप अभयदान-पद के दाता बने। वैसे ही आपने लाभान्तराय कर्म को नष्ट किया। आपने जगत के अन्तरायों का भी निवारण किया। आप विश्व विघ्ननिवारक बने? आपको परम लाभ [मोक्ष] प्राप्त हुआ, आप मोक्षसुख में मस्त हैं। वीर्यविघन पंडितवीर्ये हणी पूरण पदवी-योगी, भोगपभोग दोय विघन निवारी पूरण भोग-सुभोगी....
हे जिनेश्वर, आपने अपूर्व वीर्योल्लास से [पंडित वीर्ये वीर्यान्तराय [वीर्यविघन] कर्म का नाश किया [हणी] और पूर्ण पदवी [मोक्ष की] के योगी बने । भोगान्तराय कर्म और उपभोगान्तराय कर्म दोनों अन्तरायों को दूर कर आप पूर्ण भोग [मोक्षसुख] के भोगी बने।
इस प्रकार योगीराज ने परमात्मा, कौन-कौन से अट्ठारह दोषों से मुक्त होते हैं-यह लाक्षणिक शैली में बता दिया है । परमात्मा अट्ठारह दोषों से रहित होते हैं-' और 'जो आत्मा अट्ठारह दोषो से मुक्त हो, वही परमात्मा है, इस बात को स्पष्ट किया है।
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