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पत्र २० ए अढार दूषण वरजित तनु, मुनिजन-वृन्दे गाया, अविरति रूपक दोष-निरुपण, निर्दूषण मन भाया....
'हे नाथ, इस प्रकार अट्ठारह दोषों [दूषण] से रहित [वरजित] शरीरवाले तनु शरीर] आपके, मुनिवरों के समूह [वृन्द] ने गुण गाये हैं। 'रूपक' अलंकार से, अविरति आदि दोषों का वर्णन [निरुपण] करके, दोषरहित आप मेरे मन को भा गये हो, मुझे प्रिय लगे हो।' चेतन, अब तुझे क्रमशः ये अट्ठारह दोष बताता हूँ
१. अज्ञान, २. निद्रा, ३. स्वप्न, ४. जागरदशा, ५. मिथ्यात्व, ६. हास्य, ७. रति, ८. अरति, ९. शोक, १०. भय, ११. दुगंछा, १२. स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद, १३. राग-द्वेष-अविरति, १४. दानान्तराय, १५. लाभान्तराय, १६. लोभान्तराय, १७. उपभोगान्तराय, और १८. वीर्यान्तराय.
इन १८ दोषों से मुक्त परमात्मा सभी के मन में भा जायें-यह स्वाभाविक है। इणविध परखी मन विसरामी जिनवर गुण जे गावे. दीनबंधुनी महेर नजरथी आनंदघन-पद पावे.... __ इस प्रकार [इणविध] देवतत्त्व की परीक्षा कर [परखी] मन के विश्रामरूप जिनेश्वर भगवंत के जो मनुष्य गुण गाता है, उस पर दीनबन्धु परमात्मा की महेर नजर [कृपादृष्टि] पड़ती है। परमात्मा की कृपादृष्टि से मनुष्य आनन्दघनपद [मोक्ष] पा लेता है।
चेतन, परमात्मतत्त्व की परीक्षा करने की पद्धति बतायी आनन्दघनजी ने। १८ दोषों से मुक्त ही हमारे परमात्मा हैं। जिन में ये दोष कम-ज्यादा होते हैं, वे हमारे परमात्मा नहीं हो सकते । तीर्थंकर परमात्मा वैसे दोषरहित.... निर्दोष होते हैं। उनकी भक्तिभाव से आराधना कर लेनी चाहिए।
- प्रियदर्शन
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