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पत्र २०
यहाँ योगीराज ने नौ नोकषाय में से ६ नोकषाय का नाश बताया है। उन छ: नोकषायों का परिचय दे दूं।
१. हास्य = हँसना, २. रति = खुश होना, ३. अरति = नाखुश होना, ४. शोक = चिन्ता करना, रोना, ५. दुगंछा = घृणा करना, ६. भय ।
क्षपकश्रेणि में चढ़ने से पूर्व ही परमात्मा ने इन नोकषायों को निर्बल कर दिये होते हैं। जब वे क्षपकश्रेणि शुरु करते हैं, तब ये नोकषाय नष्ट हो जाते हैं।
पुराने सेवकों पर भगवान को जरा भी दया नहीं आयी! खदेड़ दिये उनको!
इन नो-कषायों को कुत्ते की उपमा दी है, श्री आनन्दघनजी ने! बहुत अच्छी उपमा दी है! वास्तव में ये नो-कषाय कुत्ते जैसे ही हैं! राग-द्वेष अविरतिनी परिणति ए चरणमोहना योधा, वीतराग-परिणति परिणमतां, उठी नाठा बोधा.... __ हे भगवंत, आप में ज्यों वीतरागपरिणति आयी, आपकी आत्मा वीतरागअवस्था में रूपान्तरित हुई त्यों ही 'चारित्र मोहनीय' कर्म के सैनिक [योधा] राग, द्वेष और अविरति की परिणति.... स्वयं ही भाग गये! चूंकि वे सावधान [बोधा] हो गये थे! 'अब यहाँ अपनी कुछ चलनेवाली नहीं है, समझ गये थे वे ।
सभी कषाय [क्रोध-मान-माया-लोभ] नष्ट हो गये, यानी 'चारित्र-मोहनीय कर्म' का दोष दूर हो गया और भगवान वीतराग बन गये। वेदोदय कामपरिणामा काम्यकर्म सह त्यागी, नि:कामा करुणारससागर, अनंत चतुष्क पद पागी.... __हे जिनेन्द्र! वेदोदय से जो कामवासना की इच्छा पैदा होती हैं, उनका और मनकामना से जो कार्य किये जाते हैं [काम्य कर्म], उनका आपने त्याग कर दिया! आप निष्कामी बन गये, करुणा के सागर बन गये और चार अनंत आपके चरणों में आकर गिरे! [पदपागीउचरणों में आकर पड़नेवाला]
चेतन, यहाँ 'वेद' शब्द का अर्थ ऋग्वेद वगैरह नहीं करने का है। वेद यानी वासना । तीन प्रकार के वेद बताये गये हैं, शास्त्रों में । पुरुष वेद, स्त्रीवेद और नपुंसक वेद!
० पुरुषवेद के उदय से स्त्री-संभोग की इच्छा होती है, पुरुष को। ० स्त्रीवेद के उदय से पुरुष-संभोग की इच्छा होती है, स्त्री को।
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