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पत्र २० चेतन, इन चार अवस्थाओं को समझ ले पहले। १. निद्रा : भव्य जीव हो या अभव्य जीव हो, उन सभी जीवों की
मिथ्यात्वयुक्त अनादिकालीन अज्ञान-दशा। २. स्वप्न : जब तक मोक्ष के अनुकूल भाव नहीं जगे। ३. जागर : मोक्ष-पुरुषार्थ में सतत जागृति । ४. उजागरता : आत्मा की आत्मभाव में सदैव संपूर्ण जागृति ।
जो सर्वज्ञ-वीतराग होते हैं, उनको चौथी उजागर-दशा होती है। यह अवस्था प्राप्त होने पर, पूर्व की तीन अवस्थायें नहीं रहती हैं। अनादिकाल से निद्रा और स्वप्न अवस्था तो आत्मा के साथ लगी हुई हैं। जब ‘जागरदशा' आती हैं, तब निद्रा और स्वप्न-दशा चली जाती हैं। 'उजागरदशा' आने पर 'जागर' दशा भी चली जाती है। समकित साथे सगाई कीधी सपरिवारशुं गाढी, मिथ्यामति अपराधण जाणी घरथी बाहिर काढी....
हे भगवंत! आपने मिथ्यात्व मिथ्यामति को अपराधी समझा और उसको आत्मघर से बाहर निकाल [काढी] दिया। आपने समकित [सम्यग्दर्शन] के साथ नाता [सगाई] जोड़ा [कीधी], संबंध बाँध लिया। वह भी अकेले समकित के साथ नहीं, समकित के पूरे परिवार के साथ नाता जोड़ लिया।
समकित के परिवार को भी पहचान ले! पहला है आस्तिक्य, दूसरा है संवेग, तीसरा है निर्वेद, चौथी है अनुकंपा और पाँचवा है, उपशम । यह मुख्य परिवार है।
कहने का तात्पर्य यह है कि परमात्मा को क्षायिक समकित प्राप्त हुआ तब मिथ्यात्व का समूल उच्छेद हो गया। हास्य अरति रति शोक दुगंछा, भय पामर करसाली, नोकषाय, श्रेणिजग चढ़ता श्वान तणी गति झाली....
हे जिनेश्वर, बेचारे नोकषाय! आपने हास्य, रति, अरति, शोक, जुगुप्सा और भय.... इनको पहले ही कमजोर [करसाली] कर दिये थे, जब आपने क्षपकश्रेणिरूप हाथी पर आरोहण कर दिया, तब वे पामर नोकषाय कुत्ते [श्वान] की तरह दूम दबा कर भागने लगे [गति झाली]!
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