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पत्र २०
१६६ तो मल्ल जैसे बलवान् हो!' ऐसा भाव मन में लेकर कवि ने कहा 'क्यों आपने पुराने सेवक काम-क्रोध-लोभ आदि को धक्का देकर खदेड़ दिये? उन सेवकों का नामोनिशान मिटा दिया!' ___ सेवक पुराना हो तो क्या हो गया? यदि वह नुकसान करनेवाला सिद्ध होता है, तो उसको निकाल देना चाहिए। अज्ञानता, मोह, राग-द्वेष.... इत्यादि का सहारा लेकर जीवात्मा अनादिकाल से संसार में रहा हुआ है। हास्य, रति-अरति, भय, शोक.... जुगुप्सा.... इत्यादि का सहारा तो प्रतिदिन.... प्रतिपल लेता रहता है। मोहमूढ़ जीवात्मा को वे हास्य वगैरह अच्छे लगते हैं। परन्तु जब ज्ञानदृष्टि खुलती है, तब ये सब दोषरूप लगते हैं, नुकसान करनेवाले लगते हैं। नुकसान होता है आत्मा को ।
एक-एक दोष को कैसे निकाला मल्लिनाथ ने, बहुत रसपूर्ण भाषा में बताते हैंज्ञान स्वरूप अनादि तमारुं ते लीधुं तमे ताणी, जुओ, अज्ञानदशा रीसावी, जातां काण न आणी! __ हे नाथ, आपका अनादिकालीन ज्ञानस्वरूप, जो कि अनंत कर्मों के नीचे दबा हुआ पड़ा था, उसको आप ने खींच निकाला [लीधुं तमे ताणी] बाहर! और उधर देखिये, ज्ञानदशा को देखकर अज्ञानदशा को रीस आ गयी! वह चली गई.... फिर भी आप ने शोक नहीं किया [काण न आणी]
सर्वप्रथम आपका अज्ञान-दोष दूर हुआ। प्रभो, आप सर्वज्ञ हो गये। वह बेचारी अज्ञानता चली गई....
अनादिकाल से जो आपके संग रही थी, आपकी आँखों में आँसू भी नहीं आये, आप ने शोक भी नहीं किया! जब कि वह अज्ञानता अब कभी भी आपके पास आनेवाली नहीं है। निद्रा सुपन जागर उजागरता तुरिय अवस्था आवी, निद्रा-सुपनदशा रीसाणी जाणी न नाथ! मनावी....
हे नाथ, अवस्थायें-निद्रा, स्वप्न, जागर और उजागर में से चौथी [तुरिय] अवस्था आपको प्राप्त हुई, इससे निद्रा, स्वप्न और जागरदशा रुठ गई। आपने चार सेविकाओं में से एक को ही रखी, इससे तीन को रीस आ गई, फिर भी उनको मनाने का आपने प्रयत्न नहीं किया, जाने दी उन तीनों को।'
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