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पत्र २०
१६५
सेवक किम अवगणिये हो मल्लि जिन! ए अब शोभा सारी?
अवर जेहने आदर अति दिये, तेहने मूल निवारी.... हो मल्लि . १ ज्ञानस्वरूप अनादि तमाएं, लीधुं तमे ताणी,
जुओ अज्ञानदशा रीसावी, जातां कोण न आणी.... हो मल्लि . २ निद्रा सुपन जागर उजागरता तुरीय अवस्था आवी
निद्रा सुपन दशा रीसाणी, जाणी न नाथ मनावी.... हो मल्लि . ३ समकित साथे सगाई कीधी सपरिवार शुं गाढ़ी,
मिथ्या-मति अपराधण जाणी घरथी बाहिर काढी.... हो मल्लि. ४ हास्य अरति शोक दुगंछा भय पामर करसाली,
नो-कषाय गज श्रेणि चढतां श्वान तणी गति झाली.... हो मल्लि. ५ राग-द्वेष अविरतिनी परिणति ए चरणमोहना योद्धा,
वीतराग परिणति परिणमतां उठी नाठा बोघा..... हो मल्लि . ६ वेदोदय कामा परिणामा काम्य करम सहु त्यागी, __नि:कामी करुणारस सागर, अनंत चतुष्क पद पागी.... हो मल्लि. ७ दान-विघन वारी सहु जनने, अभय दानपद दाता,
लाभ-विघन जगविघन निवारक, परम लाभ रस माता....हो मल्लि. ८ वीर्य-विघन पंडित वीयें हणी पूरव पदवी योगी,
भोगोपभोग दोय विघन निवारी पूरण भोग सुभोगी.... हो मल्लि. ९ ए अढार दूषण वर्जित तनु मुनिजन वृन्दे गाया,
अविरति-रूपक दोष-निरुपण, निर्दूषण, मन भाया.... हो मल्लि. १० इणविध परखी मन-विशरामी जिनवर गुण जे गावे,
दीनबंधुनी म्हेरनजरथी आनन्दघन-पद पावे.... हो मल्लि . ११
हे मल्लिनाथ जिनेन्द्र! आपके जो सेवक पहले आपकी शोभारूप थे, उन पुराने सेवकों का अब क्यों अपमान [अवगणिये] कर निकाल दिये? इससे क्या आपकी शोभा बढ़ी है? दूसरे देव [अवर] जिनको बहुत आदर देते हैं, अपने पास रखते हैं, उनको सर्वथा [मूल] निकाल दिये!
प्रेम-कटाक्ष की यह भाषा है! 'मल्लिनाथ' में से 'मल्ल' शब्द लेकर 'आप
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