________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
पत्र २०
१६४ । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । ० सर्वप्रथम आपका अज्ञानदोष दूर हुआ। प्रभो! आप सर्वज्ञ हो गये। वह
बेचारी अज्ञानता चली गई, अनादिकाल से जो आपके संग रही थी! ० जो सर्वज्ञ-वीतराग होते हैं, उनको चौथी उजागर-दशा होती है। ० हे भगवंत! आपने चार प्रकार के 'अनंत' पा लिये। अनंत ज्ञान, अनंत __दर्शन, अनंत चारित्र और अनंत वीर्य।
० 'परमात्मा' अट्ठारह दोषों से रहित होते हैं 'और' जो आत्मा अठ्ठारह ____ दोषों से मुक्त हो, वही परमात्मा है, इस बात को स्पष्ट किया है। ० इस प्रकार देवत्व की परीक्षा कर, मन के विश्रामरूप जिनेश्वर भगवंत
के जो मनुष्य गुण गाता है, उस पर दीनबंधु परमात्मा की महर नजर
पड़ती है। परमात्मा की कृपादृष्टि से मनुष्य मोक्ष पा लेता है। ।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।। । । । । । । । । । पत्र : २०
श्री मल्लिनाथ स्तवना
प्रिय चेतन, धर्मलाभ! तेरा पत्र मिला, अहोभाव से आप्लावित है तेरा पत्र।
श्रीमद् आनन्दघनजी के प्रति तेरे हृदय में अहोभाव प्रगट हुआ.... उनके प्रति श्रद्धेयता पैदा हुई.... पढ़कर मुझे बहुत खुशी हुई।
परमात्मा से परम धर्म के विषय में प्रश्न किया और परमात्मा के मुँह से उत्तर दिलवाया! निश्चय नय और व्यवहार नय-दोनों नय बताये हैं, तीर्थंकर देवों ने। भीतर में निश्चयनय की धारणा बनाये रखने की है, बाहर में व्यवहार नय का पालन करने का है। ___ दोनों नयों के बतानेवाले सर्वज्ञ-वीतराग परमात्मा, दोषरहित होते हैं, उन में एक भी दोष नहीं होता है, यह बात इस स्तवना में योगीराज बतायेंगे। ___ अट्ठारह दोषों में से एक भी दोष तीर्थंकर परमात्मा में नहीं होता है। क्रमशः वे किस प्रकार दोषमुक्त होते जाते हैं.... और पूर्णता पाते हैं.... यह बात, श्री मल्लिनाथ भगवंत की स्तवना के माध्यम से बतायी है।
For Private And Personal Use Only