________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
१५८
पत्र १९ अर्थात् आत्मा के गुणपर्यायों का चिंतन नहीं करना हैं, मात्र शुद्ध आत्मा का ही अनुभव होना चाहिए, वही श्रेष्ठ धर्म है।
एक दूसरा दृष्टांत देकर यह बात समझाते हैंभारी पीलो चीकणो कनक अनेक तरंग.... पर्यायदृष्टि न दीजिये एक ज कनक अभंग....
कनक यानी सोना। सोने के अनेक पर्याय [तरंग] हैं, जैसे कि वह भारी होता है, पीला होता है, चिकना होता हैं | यदि इन पर्यायों को न देखें, यानी सोने को पर्यायदृष्टि से नहीं देखें तो अभेद रूप से एक सोना ही दिखता है | 'यह सोना है, इतना ही दिखेगा। भारीपना, पीलापन और चिकनापन.... सोने में समाया हुआ ही है। उसका अलग-अलग बोध नहीं करें, और 'यह सोना है' इतना ही अनुभव करें, तो हो सकता है।
वैसे ज्ञान, दर्शन, चारित्र, वीर्य, अगुरुलघुता, अक्षयता वगैरह अनंत आत्मगुण आत्मा से अलग नहीं हैं, वे सभी गुण आत्मरूप ही हैं | 'मैं शुद्ध आत्मा हूँ' इतना ही अनुभव करना है। इस अनुभव को श्री आनन्दघनजी ने ‘स्वसमय' कहा है। दर्शन ज्ञान चरण थकी अलख स्वरूप अनेक निर्विकल्प रस पीजिये शुद्ध निरंजन एक.... __ आत्मा जैसे दर्शन-स्वरूप है, ज्ञानस्वरूप है, चारित्रस्वरूप है, वैसे तो उस के अनेक स्वरूप हैं कि जो हम नहीं जानते हैं, [अलख] आत्मा के अनंत गुण हैं.... उन सभी गुणों को, स्वपर्यायों को भूलते चलो.... [पर द्रव्य और परपर्यायों को तो पहले ही भूल जाने के हैं] सर्वथा भूल जायें और निर्विकल्प दशा का आनन्द रस पीते रहें। कोई विकल्प नहीं.... कोई विचार नहीं! शुभ विचार नहीं और शुद्ध विचार भी नहीं। विचारों से सर्वथा मुक्ति पा लेनी है। निर्विकल्प दशा का अनुपम आनन्द होता है।
एक शुद्ध और निरंजन आत्मा की अनुभूति ही निर्विकल्प समाधि है। इसे 'निरालंबन योग' भी कहा गया है। __ 'शुद्ध निश्चय नय' की अपेक्षा से श्रेष्ठ धर्म का यह स्वरूप बताया गया है। यही सारभूत तत्त्व है, यही परमार्थ है।
For Private And Personal Use Only