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पत्र १९
१५७ शुद्धतम-अनुभव सदा, स्वसमय एह विलास.... ___ सदैव शुद्ध आत्मा का अनुभव होना, स्व-रूप का [स्वसमय का] यही विस्तार है। विलास यानी विस्तार ।
कर्मों से मुक्त आत्मा, शुद्ध आत्मा कहलाती है। शुद्ध आत्मा का अनुभव होना चाहिए और उस अनुभव में आत्मस्वरूप विस्तार से अनुभूत होना चाहिए। आत्मा का जो ज्ञानमय, दर्शनमय, चारित्रमय स्वरूप है, उसका अनुभव होना चाहिए। ज्यादा से ज्यादा समय उस अनुभव की अवस्था बनी रहनी चाहिए।
श्री आनन्दघनजी, आत्मानुभव की निरंतरता को धर्म कहते हैं, परम धर्म कहते हैं, श्रेष्ठ धर्म कहते हैं। पर-पडिछांयडी जे पडे, ते परसमय-निवास रे, __ आत्मा से जो भिन्न है-वह पर है। आत्मा से भिन्न हैं जड़ द्रव्य, आत्मा से पर है, वैभाविक भाव और आत्मा से पर है, दूसरी आत्मायें । शुद्ध आत्मा पर इन परद्रव्यों की प्रतिच्छाया [पडिछांयड़ी] पड़ती है, तब वह शुद्ध आत्मा परस्वरूप का निवास बन जाती है।
जैसे स्वच्छ दर्पण में जैसी छाया पड़ती है, वैसा दर्पण दिखता है, वैसे शुद्ध आत्मा में परद्रव्यों की छाया पड़ने पर परद्रव्य-स्वरूप आत्मा बन जाती है। उस समय आत्मानुभव नहीं रहता है, इसलिए वह अवस्था धर्ममय नहीं रहती है। शुद्ध आत्मानुभव ही श्रेष्ठ धर्म है।
आत्मा के अलावा दूसरा कोई तत्त्व नहीं चाहिए अनुभव में। मात्र शुद्ध आत्मा! आत्मा के पर्यायों का भी चिन्तन नहीं करने का है। शुद्ध ज्ञानादि पर्यायों का भी चिन्तन नहीं करना है।
एक उदाहरण बताकर यह बात समझाते हैंतारा नक्षत्र ग्रह चंदनी ज्योति दिनेश मोझार, दर्शन-ज्ञान-चरण थकी शक्ति निजातम धार....
जब आकाश में सूर्य [दिनेश] जगमगाता है, उस समय ताराओं की, नक्षत्रों की, ग्रहों की और चन्द्र की ज्योति सूर्य में ही समा जाती है, वैसे दर्शन, ज्ञान और चारित्र के पर्याय [शक्ति] अपनी आत्मा [निजातम] में ही रहे हुए हैं।
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