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पत्र १९
१५९ 'स्वसमय' और 'परसमय' की कितनी गहन गंभीर और सूक्ष्म परिभाषा की है योगीराज ने! अदभुत है यह परम धर्म!
इस पारमार्थिक तत्त्व के गुण गाते हुए योगीराज कहते हैंपरमारथ पंथ जे कहे ते रंजे एक तंत, व्यवहारे लख जे रहे, तेहना भेद अनंत....
जो मुमुक्षु इस पारमार्थिक पंथ की बात जानते हैं [कहे] वे निर्विकल्प [एक तंत] दशा में आनंदित [रंजे होते हैं। जो मुमुक्षु व्यवहारमार्ग का लक्ष्य [लख] रखते हैं, वे आत्मा के अनन्त पर्यायों [भेद] में उलझते हैं। चूँकि पर्यायार्थिक नय की दृष्टि से आत्मा के अनन्त पर्याय हैं। __ आत्मानुभव के लिए द्रव्यार्थिक नय की दृष्टि चाहिए। आत्मस्वरूप की व्यापक जानकारी के लिए पर्यायार्थिक नय की दृष्टि चाहिए। दोनों नयों के माध्यम से आत्मा को जानना आवश्यक है, परंतु परम शान्ति पाने के लिए, परम धर्म की आराधना करने के लिए द्रव्यार्थिक नय की दृष्टि से एक आत्मा में ही लीनता प्राप्त करनी चाहिए | पर्यायरहित एक मात्र आत्मद्रव्य में अभेदभाव से लीन होना चाहिए।
चर्मचक्षु से मात्र द्रव्य के पर्याय ही दिखते हैं। पर्यायों के दर्शन से राग-द्वेष पैदा होते हैं। मूलभूत शुद्ध द्रव्य का दर्शन ज्ञानदृष्टि से होता है। उस दर्शन में राग-द्वेष पैदा नहीं होते हैं।
निश्चय नय और द्रव्यार्थिक नय की दृष्टि समान है। व्यवहारनय और पर्यायार्थिक नय की दृष्टि समान है । व्यवहार नय से आत्मा को लक्ष्य बनाकर चलने से क्या होता है-यह बात बताते हैंव्यवहारे लख दोहिलो कांई न आवे हाथ, शुद्ध नय-थापना सेवतां, नवि रहे दुविधा-साथ....
मात्र व्यवहार नय से ही आत्मा का लक्ष्य [लख] बनाया जाय यानी आत्मकल्याण का, आत्मशुद्धि का प्रयत्न किया जाय तो मुश्किल [दोहिलो] है आत्मशुद्धि | नहीं होगी आत्मशुद्धि। कुछ भी हाथ नहीं लगेगा। आत्मशुद्धिरूप फल प्राप्त नहीं होगा। तात्पर्य यह है कि व्यवहार धर्म के सहारे निर्विकल्प समाधि तक नहीं पहुंचा जा सकता। निर्विकल्प समाधि पाने के लिए तो शुद्ध
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