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पत्र १८ __ श्री आनन्दघनजी, भगवान कुन्थुनाथजी के सामने यही विनम्र निवेदन करते हैं। मनडुं किम ही न बाजे हो कुन्थुजिन! मनडुं किम ही न बाजे,
जिम जिम जतन करीने राखं, तिम तिम अलगुं भांजे... हो कुन्थु. १ रजनी-वासर वसती उजड़, गयण पायाले जाय... ___ 'साप खाय ने मुखड़े थोथु' एह उखाणो न्याय... हो कुन्थु. २ मुगति तणा अभिलाषी तपिया, ज्ञान ने ध्यान अभ्यासे....
वयरीडुं कांई एहवं चिंते, नांखे अवले पासे... हो कुन्थु. ३ आगम आगमधर ने हाथे, नावे किणविध आंकु...
किहां कणे जो हठ करी हठकुं, तो व्यालतणी परे वांकुं...हो कुन्थु. ४ जो ठग कहुं तो ठगतो न देखं शाहुकार पण नाही...
सर्वमांहे ने सहुथी अलगुं, ए अचरिज मनमांही... हो कुन्थु. ५ जे जे कहु ते कान न धारे, आप मते रहे कालो... ___ सुर-नर-पंडित जन समजावे, समजे न माहरो सालो... हो कुन्थु. ६ में जाण्यु ए लिंग नपुंसक, सकल मरद ने ठेले...
बीजी बाते समरथ छे नर, एहने कोई न झेले... हो कुन्थु. ७ 'मन साध्यु तेणे सघलुं साध्युं, एह बात नहीं खोटी...
एम कहे साध्युं ते नवि मा, एक ही बात छे मोटी... हो कुन्थु. ८ मनडुं दुराराध्य तें वश आण्युं, ते आगमथी मति आणु...
आनन्दघन प्रभ! माहरूं आणो, तो साचुं करी जाणु... हो कुन्थु. ९ 'हे कुन्थुनाथ जिनेश्वर! मेरा तुच्छ मन [मनडुं] किसी भी प्रकार किमही] वश [बाजे] में नहीं आता है। ज्यों-ज्यों प्रयत्न [जतन] करता हूँ उस मन को वश करने का, त्यों-त्यों वह दूर-दूर [अलगुं] भागता [भांजे] है।' __ चेतन, मन आत्मा से भिन्न है। मन और आत्मा एक नहीं है। आत्मा चैतन्यस्वरूप है, मन पौद्गलिक है। 'मनोवर्गणा' के पुद्गलों से मन बनता है। आत्मा के राग, द्वेष, मोह, ज्ञान, वैराग्य.... अच्छे-बुरे सभी विचार मन के द्वारा अभिव्यक्त होते हैं।
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