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पत्र १८ ।। । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । ० जिस मनुष्य में राग-द्वेष की प्रबलता होती है, उसका मन तो चंचल होता ही है, परन्तु जिन मनुष्यों में राग-द्वेष की प्रबलता नहीं होती है,
उनका मन भी चंचल बन जाता है कभी-कभी! ० मन का दमन करने से, मन पर बलात्कार करने से मन वश में नहीं
आता है। वह ज्यादा उधम मचाता है, ज्यादा मनस्वी बन जाता है। ० मन का वशीकरण कोरे शास्त्रज्ञान से नहीं हो सकता, कोरे देहदमन
से नहीं हो सकता और घंटे-दो-घंटे के ध्यान से भी नहीं हो सकता। ० बलवान पुरुष युद्ध के मैदान में शत्रुओं को मार सकता है, परन्तु अपने
मन पर विजय नहीं पा सकता है। ० हे प्रभो! मेरे मन को मैं वश कर सकूँ, मैं मनोजय कर सकूँ-वैसी कृपा
आप मेरे ऊपर करें तो मैं मान लूँगा कि आपने मनोजय किया है। ।। । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । पत्र : १८
श्री कुन्थुनाथ स्तवना
प्रिय चेतन, धर्मलाभ! तेरा पत्र मिला, आनन्द!
शान्ति पाने का मार्ग सरल तो नहीं है। निःसत्व कायर मनुष्यों के लिए यह मार्ग नहीं है। तेरी बात सही है.... फिर भी, शान्ति का स्वरूप पढ़कर, यदि पसन्द आ जाता है और उस मार्ग पर धीरे-धीरे भी चलने की कोशिश करेगा.... लड़खड़ाता भी चलता रहेगा, तो 'इच्छा-योगी' अवश्य बन जायेगा। __ शान्ति के उच्चतर शिखर पर पहुँचने में एक बड़ा विघ्न आता है.... वह विघ्न है, मन की चंचलता.... मन की अस्थिरता। हाँ, बड़े-बड़े ज्ञानी और परम शान्ति के अभिलाषी महात्माओं को भी यह विघ्न सताता है। आत्मा की सत्ता में पड़े हुए मिथ्यात्व.... अविरति.... कषाय वगैरह मलिन तत्त्व ही मन को चंचल बनाते हैं। चंचल मन, साधक को ग्यारहवें गुणस्थानक से भी नीचे गिरा देता है।
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