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पत्र १८
यहाँ श्री आनन्दघनजी जो कहते हैं.... 'कैसे भी मेरा मन वश नहीं होता है, यह वास्तव में 'मेरा मोहग्रस्त मन वश नहीं होता है'-ऐसा समझने का है। ___ चंचल मन कहाँ-कहाँ चला जाता है.... कितना दूर-दूर भागता है, यह बताते हुए कवि कहते हैंरजनी-वासर वसति-उजड़ गयण-पायाले जाय....
[रजनी = रात्रि, वासर = दिवस, वसति = गाँव, नगर, उज्जड़ = निर्जन प्रदेश, गयण = आकाश, पायाले = पाताल में
रात और दिन देखे बिना, हे प्रभो! मेरा चंचल मन किसी भी समय चला जाता है। गाँव-नगर में भटकने जाता है.... निर्जन प्रदेशों में भी चला जाता है.... पहाड़ों में और बीहड़ जंगलों में भी जाता है। ऊपर आकाश में भी उड़ता है और नीचे पाताल में भी पहुँच जाता है।
प्रिय-अप्रिय वस्तुओं के पास जाता है और प्रिय-अप्रिय व्यक्तिओं के पास जाता है। क्या पाता है वह-यह बताते हुए कवि कहते हैं'साप खाये ने मुखडं थोथु' एह उखाणो न्याय....
साँप अपने भक्ष्य को निगल जाता है, उसके मुँह में कोई स्वाद नहीं आता है, उसका मुँह तो फिक्का ही रहता है-वैसी ही बात मन की है। मन कितने ही विचार करे.... कहीं पर भी जाय, उसे कोई संतोष नहीं मिलता है। ___ 'थो\' यानी फिक्का | 'उखाणो' यानी कहावत । 'साप खाये ने मुखडूं थोथु,' यह गुजराती कहावत है। मन के लिये भी यह कहावत चरितार्थ होती है। मन आकाश से पाताल तक भटकता है, परंतु उसको मिलता कुछ नहीं है। ___ जिस मनुष्य में राग-द्वेष की प्रबलता होती है, उसका मन तो चंचल होता ही है, परंतु जिन मनुष्यों में राग-द्वेष की प्रबलता नहीं होती है, राग-द्वेष मंद होते हैं, उनका मन भी चंचल बन जाता है, कभी-कभी। यह बात योगीराज बता रहे हैंमुगति तणा अभिलाषी तपिया, ज्ञान-ध्यान अभ्यासे, वयरीडुं कांई एहवं चिंते नांखे अवले पासे.... ___ जो साधक मुक्ति के अभिलाषी होते हैं और मोक्षमार्ग की आराधना करते हैं, यानी तपश्चर्या करते हैं, ज्ञान-ध्यान का अभ्यास करते हैं, उनके मन भी
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