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पत्र १७
१४२ चेतना का अर्थ है, पूर्णज्ञान और पूर्णदर्शन यानी केवलज्ञान और केवलदर्शन । ज्ञान-दर्शन गुण हैं, गुणों का आधार आत्मा है। हम आत्मा हैं, हमारा परिकर [परिवार] ये ज्ञान-दर्शनादि गुण हैं। ज्ञानदर्शन की रमणता ही शान्ति का स्वरूप है। वह रमणता आ जाय मन में, तो समझना कि शान्ति की प्राप्ति हो गई। __ भगवान् शान्तिनाथ ने आत्मा के प्रश्न का उत्तर दे दिया। उत्तर सुनकर आत्मा खुशी से झूमती है और परमात्मा को नतमस्तक होकर कहती हैताहरे दरिशणे निस्तों, मुज सिध्यां सवि काम रे....
हे भगवंत! आपके दर्शन मुझे मिल गये.... सचमुच मुझे लगता है कि मैं भवसागर तैर गया [निस्तर्या]! मेरे सभी कार्य सिद्ध हो गये! अब मेरी दूसरी कोई इच्छा शेष नहीं रही है, न मेरा कोई कार्य शेष रहा है! आपने मुझे जो शान्ति का स्वरूप बताया.... और शान्ति की प्रतीति करवा दी.... इससे मैं अत्यंत आनन्दित हूँ। आपकी वाणी सुनते-सुनते मैंने ऐसा अनुभव किया कि मेरी आत्मा जैसे सामर्थ्ययोगी बन गई! अहो! अहो! हुं मुजने कहुं 'नमो मुज.... नमो मुज' रे....
मैं बार-बार मेरी आत्मा को [मुजने] कहता हूँ.... यानी अपने आपको कहता हूँ : 'मुझे नमस्कार हो!' चूंकि मैं, प्रभो, धन्य बन गया हूँ आपके दर्शन पाकर | आपसे मेरा मिलन होने से.... मैं भी नमस्करणीय बन गया हूँ मेरे लिए! आपने मुझे अपरिमित [अमित] फल का दान दिया है। आप महान् दाता हैं।
कृतज्ञता अभिव्यक्त करने की कितनी अद्भुत शैली है कविराज की! और आत्मभाव की निर्मलता को प्रगट करने के लिये कितनी भव्य शब्दरचना की है योगीराज ने! 'मैं मुझे नमस्कार करता हूँ!' जैसे कि स्वयं परमात्मस्वरूप बन गये! परमात्मा से अभेद भाव से मिल गये! और 'ऐसी उत्तम आत्मस्थिति के दाता आप हैं शान्तिनाथ भगवंत!' कह कर, नम्रता का सिन्धु बहा दिया!
श्री आनन्दघनजी स्तवना का उपसंहार करते हुए कहते हैंशान्तिस्वरूप संक्षेपथी कह्यो निज-पर रुप रे.... आगम माहे विस्तार घणो कह्यो शान्तिजिन भूप रे.... 'मैंने संक्षेप में शान्ति का स्वरूप कहा है। स्व-रूप से शान्ति का स्वरूप
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