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पत्र १७
१४१ ० न मान-सम्मान उनके मन में रागजन्य चंचलता पैदा कर सकते हैं, न
अपमान-तिरस्कार द्वेषजन्य चंचलता पैदा कर सकते हैं। मान-अपमान को
समान रूप में वे जानते हैं। ० चाहे उनके सामने सोना [कनक] आ जाय, या पत्थरों का [पाषाण] ढेर पड़ा हो-उस योगी की ज्ञानदृष्टि में दोनों समान होते हैं। पाषाण और
सुवर्ण में वे कोई अन्तर नहीं देखते । ० कोई भक्त उन महर्षि के चरणों में वंदन करे या कोई व्यक्ति उनकी निन्दा
करे, वंदक और निन्दक-दोनों को वे समान समझते हैं | वंदक के प्रति राग नहीं, निन्दक के प्रति द्वेष नहीं। ऐसे [इस्यो] होते हैं, सामर्थ्ययोगी! भगवान शान्तिनाथ आतमराम को कहते हैं कि 'तू जान ले, समझ ले शान्ति का स्वरूप।' ० सकल विश्व के सभी जीवों को [जंतुने] वे योगीपुरुष समान जानते हैं। न
श्रीमन्त-गरीब का भेद, न राजा-प्रजा का भेद | भेदरहित समानरूप में वे
जीवसृष्टि को देखते हैं। सभी जीवों का विशुद्ध स्वरूप समान ही है। ० चाहे घास हो या मणि-माणक हो, सामर्थ्ययोगी के मन में कोई अन्तर नहीं होता। न घास के प्रति तुच्छता का भाव, न मणि-माणक के प्रति उत्तमता
का भाव। ० अरे, संसार और मोक्ष में भी कोई भेदभाव उनके मन में नहीं रहता है।
दोनों समान समझते हैं, वे योगी। ० सामर्थ्ययोगी, इस समत्वभाव को संसारसागर [भवजलनिधि] में नैया
समझते हैं। यानी जिस मनुष्य को संसारसागर को पार करना है, उसको समत्व की नैया में बैठना ही होगा। समत्व के अलावा दूसरी कोई नैया नहीं है कि जो संसारसागर से जीव को पार लगा दे।
चेतन, भगवान शान्तिनाथ आतमराम को कहते हैंआपणो आतम-भाव जे, एक चेतनाधार रे.... अवर सवि साथ-संयोगथी एह निज-परिकर सार रे....
अपनी आत्मा चेतना की आधार है। यानी चैतन्यस्वरूप है, आत्मस्वभाव । इसके अलावा जो कुछ भी है, वह कर्मों के साथ-संयोग से पैदा हुआ है। सारभूत जो है, वह चेतना [निज-परिकर] ही है।
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