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पत्र १७ बताया और पर-रूप से भी शान्ति का स्वरूप बताया। यानी 'स्व' और 'पर' की पहचान कराकर मैंने संक्षेप में शान्ति का स्वरूप कहा है। श्री शान्ति जिनराज [जिनभूप] ने आगमों में विस्तार से शान्ति का स्वरूप कहा हैं।'
सभी तीर्थंकरों के आगम अर्थदृष्टि से समान होते हैं, इस अपेक्षा से भगवान महावीरस्वामी के आगम, शान्तिनाथ भगवान के आगम कहे जा सकते हैं। शब्दरचना आगमों की, प्रत्येक तीर्थंकर के शासन में भिन्न होती है, भाव समान होते हैं। इस अपेक्षा से आनन्दघनजी ने यह बात कही है। शान्तिस्वरूप एम भावशे, धरी शुद्ध प्रणिधान रे.... आनन्दघन-पद पामशे, ते लहेश बहु मान रे.... __ 'मन को एकाग्र कर, वाणी का मौन धारण कर और इन्द्रियों पर संयम रख कर [शुद्ध प्रणिधान] इस प्रकार [जैसे स्तवना में बताया गया] शान्ति के स्वरूप का मनन करेगा, वह श्रेष्ठ कोटि का सम्मान पायेगा [लहेशे] और मोक्षदशा [आनन्दघन-पद] प्राप्त करेगा।' __ 'चेतन, यहाँ योगीराज ने 'शुद्ध प्रणिधान' शब्द का प्रयोग कर, साधक को कड़ी सावधानी दे दी है। मन-वचन-काया की शुद्धि का आग्रह किया है। शान्तिनाथ भगवंत के मुँह से योगीराज ने शान्ति का स्वरूप कहलाया है। इस से इस स्तवना की गंभीरता बढ़ गई है।
शुद्ध प्रणिधान का दूसरा अर्थ 'शुद्ध संकल्प' भी हो सकता है । 'मुझे शान्ति का सही स्वरूप जानना है और उस शान्ति को पाने का पुरुषार्थ करना है।' ऐसे संकल्प [निर्णय-निश्चय] के साथ शान्ति का स्वरूप जानना चाहिए-ऐसा कवि का तात्पर्य है।
चेतन, मन को एकाग्र करके इस स्तवना पर मनन करना । जैसे आनन्दघनजी ने कहा कि 'शान्तिस्वरूप संक्षेपथी कह्यो,' वैसे मैंने भी स्तवना कि विवेचना संक्षेप से ही की है। चूंकि पत्र में विस्तार अनुचित माना गया है! विस्तार से समझना हो तब थोड़े दिन मेरे पास आ जाना!
-प्रियदर्शन
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