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पत्र १७ शान्ति-सरूप संक्षेपथी, कह्यो निज-पर रूप रे....
आगम मांहे विस्तर घणो, कह्यो शान्तिजिन भूप रे.... शान्ति० १४ शान्ति-सरुप एम भावशे, धरी शुद्ध प्रणिधान रे..... आनन्दघन-पद पामशे, ते लहेशे बहुमान रे....
शान्ति० १५ चेतन, इस स्तवना का प्रारंभ प्रश्न से हुआ है। आत्मा परमात्मा को प्रश्न करती है। शान्तिनाथ भगवान को प्रश्न भी शान्ति के विषय में ही पूछा गया है!
'हे शान्ति जिनेश्वर! हे तीन भुवन के राजा! मेरी एक विनती सुनने की कृपा करें| मेरे मन के प्रश्न का उत्तर देने की कृपा करें ।' प्रश्न यह है'शान्ति-स्वरूप किम जाणिए, कहो मन किम परखाय रे?'
'प्रभो, शान्ति का स्वरूप क्या है और 'मन में शान्ति प्राप्त हुई है, उसकी परीक्षा अपने मन से किस प्रकार की जाय?'
मन की शान्ति पाने के लिए मनुष्य दुनिया में यत्र-तत्र-सर्वत्र भटकता है, परंतु शान्ति का स्वरूप ही कहाँ समझता है? कोई इच्छा पूर्ण होती है, तो मानता है-'अब शान्ति मिली!' इच्छापूर्ति को शान्ति माननेवाला, अनन्त इच्छाओं के उज्जड़ जंगल में भटकता रहता है। कभी अंत नहीं आता है, इच्छाओं का । इसलिए 'शान्ति' का वास्तविक स्वरूप समझना बहुत आवश्यक है। __ आत्मा का प्रश्न परमात्मा सुनते हैं और आत्मा को कहते हैंधन्य तूं आतमा! जेहने एहवो प्रश्न अवकाश रे....
'हे आत्मन्! धन्य है तुझे कि तेरे मन में ऐसा प्रश्न उठा! ऐसा प्रश्न पूछने का समय [अवकाश] मिला!'
'शान्ति क्यों नहीं है? शान्ति कैसे मिलेगी? शान्ति कहाँ मिलेगी?' वगैरह प्रश्न पूछनेवाले तो दुनिया में बहुत लोग मिलते हैं, परन्तु 'शान्ति' किसको कहते हैं? शान्ति का स्वरूप क्या है? ऐसा प्रश्न पूछनेवाला नहीं मिलता है। आनन्दघनजी ने यह मूलभूत प्रश्न पूछा और भगवान ने उनको धन्यवाद दिया। भगवान शान्तिनाथ कहते हैंधीरज मन धरी सांभलो, कहुं शान्ति-प्रतिभास रे.... __ 'हे आत्मन, तेरे प्रश्न का उत्तर विस्तृत है, इसलिए मन में धैर्य रखते हुए सुनना। मैं तुझे शान्ति का प्रतिभास [स्वरूप] बताता हूँ।'
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