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पत्र १७
__सर्वज्ञ वीतराग ने प्रत्येक जीवात्मा के दो प्रकार के भाव बताये हैं, यानी 'प्रत्येक जीव में दो प्रकार के भाव होते हैं-१. अविशुद्ध और २. सुविशुद्ध ।' भाव अविशुद्ध सुविशुद्ध जे, कह्या जिनवर देव रे....
अविशुद्ध यानी वैभाविक और सुविशुद्ध यानी स्वाभाविक ।
चेतन, वैभाविक और स्वाभाविक-ये दो शब्द तेरे लिए अपरिचित हैं। परंतु समझने जैसे हैं, ये दो शब्द । आत्मा और कर्मों के संयोग से जो भाव पैदा होते हैं, वे वैभाविक भाव कहलाते हैं, और आत्मा के स्वयं के कर्मों के क्षय से या क्षयोपशम से] जो भाव होते हैं, वे स्वाभाविक भाव कहलाते हैं। तीर्थंकरों ने जीवों को वैभाविक भावों से मुक्त होने का उपदेश दिया है।
औदयिक भावों को वैभाविक और क्षायिक-क्षायोपशमिक भावों को स्वाभाविक भाव कह सकते हैं। इन दोनों प्रकार के भावों पर श्रद्धा करनी चाहिए। 'ते तेम' अवितत्थ सद्दहे, प्रथम ए शान्तिपद सेव रे....
'ये दोनों प्रकार के भाव [ते] उसी प्रकार [तेम] हैं, इस तरह सत्यता [अवितत्थ] को स्वीकार [सद्दहे] करना शान्ति की प्राप्ति का प्रथम चरण है। - इन भावों के स्वीकार के साथ 'आत्मतत्त्व' के अस्तित्व का स्वीकार हो जाता है। आत्मतत्त्व की श्रद्धा शान्ति की प्राप्ति का प्रारंभ है। तात्पर्य यह है कि वास्तविक शान्ति पाना है, तो आत्मतत्त्व की श्रद्धा हृदय में स्थापित करनी होगी। तात्त्विक श्रद्धा, मनुष्य के काषायिक भावों को मंद करती है। काषायिक भाव [वैभाविक मंद होने से शान्ति प्रगट होती है।
चेतन, वैभाविक भावों की लंबी ‘सूची' है! स्वाभाविक भावों की भी एक सूचि है! 'प्रशमरति' विवेचन में तू पढ़ना उन दोनों सूचियों को। __अब शान्तियात्रा का प्रारंभ होता है। इस यात्रा में ऐसे सदगुरु का संयोग मिलना चाहिए कि अपनी शान्तियात्रा आगे बढ़ती रहे। वे सद्गुरु कैसे होने चाहिए, यह बताते हुए योगीराज कहते हैंआगमधर गुरु समकिती, किरिया संवर सार रे.... संप्रदायी अवंचक सदा, शुचि अनुभवाधार रे....
ऐसे गुरु की प्राप्ति में मनुष्य के पुण्यकर्म का उदय होना चाहिए। ऐसे गुरु की खोज करने का पुरुषार्थ आवश्यक है, परंतु यह पुरुषार्थ गौण होता है, भाग्य प्रधान होता है। सद्गुरु कैसे होते हैं, यह बताया है
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