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पत्र १७
१३३ शान्तिजिन! एक मुज विनती, सुणो त्रिभुवन-राय रे....
शान्ति स्वरूप किम जाणिये? कहो मन किम परखाय रे....शान्ति० १ धन्य तूं आतमा, जेहने, एहवो प्रश्न अवकाश रे....
धीरज मन धरी सांभलो, कहुं शान्ति-प्रतिभास रे.... शान्ति० २ भाव अविशुद्ध सुविशुद्ध, जे कह्या, जिनवर-देव रे....
'ते तिम' अवितथ सद्दहे, प्रथम ए शान्तिपद सेव रे.... शान्ति० ३ आगमधर गुरु समकिती, किरिया संवरसार रे....
संप्रदायी अवंचक सदा, शुचि अनुभवाधार रे.... शान्ति० ४ शुद्ध आलंबन आदरे, तजी अवर जंजाल रे....
तामसी-वृत्ति सवि परिहरे, भजे सात्त्विक शाल रे.... शान्ति० ५ फल-विसंवाद जेहमां नहीं, शब्द ते अर्थ संबंधी रे....
सकल नयवाद व्यापी रह्यो, ते शिवसाधन-संधि रे.... शान्ति० ६ विधि-प्रतिषेध करी आतमा, पदारथ अविरोध रे....
ग्रहणविधि महाजने परिग्रह्यो, इस्यो आगमे बोध रे.... शान्ति० ७ दुष्टजन-संगति परिहरी, भजे सुगुरु-संतान रे....
जोग सामर्थ्य चित्त भाव जे, धरे मुगति-निदान रे.... शान्ति० ८ मान-अपमान चित्त सम गणे, सम गणे कनक-पाषाण रे....
वन्दक-निन्दक सम गणे, इश्यो होय तू जाण रे.... शान्ति० ९ सर्व जगजंतु ने सम गणे, सम गणे तृण-मणि भाव रे....
मुक्ति-संसार बिहु सम गणे, मुणे भव-जलनिधि-नाव रे....शान्ति० १० आपणो आतमभाव जे एक चेतनाऽऽधार रे..... __ अवर सवि साथ-संयोगथी, एह निज-परिकर सार रे.... शान्ति० ११ प्रभु-मुखथी एम सांभली, कहे आतमराम रे....
ताहरे दरिशने निस्तों , मुज सीधां सवि काम रे.... शान्ति० १२ अहो अहो हुं मुज ने कहुं-'नमो मुज, नमो मुज रे'....
अमित फलदान दातारनी, जेहने भेट थई तुज रे.... शान्ति० १३
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