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पत्र १७
१३२ ।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।। ० इच्छापूर्ति को शान्ति माननेवाला अनन्त इच्छाओं के उज्जड़ जंगल में
भटकता रहता है। कभी अंत नहीं आता है, इच्छाओं का। ० आत्मतत्त्व की श्रद्धा, शान्ति की प्राप्ति का प्रारंभ है। ० काषायिक भाव [वैभाविक] मंद होने से शान्ति प्रगट होती है। ० सद्गुरु मिलने पर, उनके दर्शनमात्र से हृदय आनन्दित हो जाय, दर्शनमात्र से शुभ विचार जाग्रत हो जाय, दर्शनमात्र से उनके प्रति
प्रीति पैदा हो जाय, तो समझना कि 'योगावंचक' की प्राप्ति हुई है। ० मात्र निश्चयनय से नहीं सोचना है, मात्र व्यवहार नय से फल का
विचार नहीं करना है। ० तामसी प्रकृति के लोग अशान्त ही बने रहते हैं। । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । पत्र : १७
श्री शांतिनाथ स्तवना
प्रिय चेतन, धर्मलाभ! तेरे पत्र नियमित मिल रहे हैं।
श्री धर्मनाथ भगवंत की स्तवना ने तुझे अति प्रसन्न कर दिया है-जानकर आनन्द हुआ।
बात-बात में उपास्य.... आराध्य परमात्मतत्त्व को बदलनेवालों के लिए 'बीजो मनमंदिर आणु नहीं, ए अम कुलवट रीत....' कितनी प्रेरणादायी बात कही है!
और, 'धरम जिनेश्वर-चरण ग्रह्या पछी कोई न बांधे कर्म,' कह कर साधक को कितना स्पष्ट मार्गदर्शन दे दिया है!
श्री शांतिनाथ भगवंत की स्तवना के माध्यम से योगीराज ने आत्मा की उच्चतम अवस्था का स्वरूप बताया है। परम शान्ति.... अपूर्व समता.... कब प्राप्त होती है और कैसे प्राप्त होती है, यह बात हृदयंगम शैली में बतायी है।
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