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पत्र १३ 'निराकार अभेदसंग्राहक, भेदग्राहक साकारो दर्शन-ज्ञान, दु भेद चेतना, वस्तुग्रहण व्यापारो...'
संक्षेप में...सूत्रात्मक भाषा में उन्होंने तत्त्वज्ञान की गहरी बात कह दी है। जैनदर्शन की यह तत्त्वविश्लेषणा समझने के बाद चेतन, तुझे बड़ा आनन्द मिलेगा।
प्रत्येक वस्तु में दो धर्म होते हैं, यानी वस्तु-स्वभाव दो प्रकार का होता है। एक 'सामान्य' और दूसरा 'विशेष' | वस्तु के सामान्य स्वभाव को जानना 'दर्शन' कहलाता है और वस्तु के विशेष स्वभाव को जानना 'ज्ञान' कहलाता है।
वस्तु का सामान्य-स्वभाव निराकार होता है, यानी कोई विशेष आकार नहीं होता है। जबकि वस्तु का विशेष-स्वभाव साकार होता है। आकार भेद पैदा करता है। निराकार में अभेद ही रहता है।
'यह मनुष्य है', इस दर्शन में मनुष्यों की अपेक्षा से कोई भेद नहीं है, परन्तु 'यह चेतन है', ऐसा ज्ञान होता है, तब भेद बन जाता है। तू चेतन है, तू भरत नहीं है, अमित नहीं है...यह भेद हुआ न? ___ आत्मा में दर्शनशक्ति है, आत्मा में ज्ञानशक्ति है। किसी भी वस्तु को जानने का प्रयत्न आत्मा दो प्रकार से करती है : दर्शन से और ज्ञान से | इस अपेक्षा से आनन्दघनजी कहते हैं कि चेतना के दो प्रकार हैं : दर्शन-चेतना और ज्ञानचेतना | तात्पर्य यह है कि आत्मा की चेतना दर्शन में प्रवाहित होती है और ज्ञान में भी प्रवाहित होती है। इस दृष्टि से, आत्मा निराकार और साकार कहलाती है। जब चेतना दर्शन में प्रवाहित होती है, तब आत्मा निराकार होती है और जब चेतना ज्ञान में प्रवाहित होती है, तब आत्मा साकार होती है।
आत्मा चैतन्यसहित होने से ‘सचेतन' कहलाती है। यानी आत्मा सदैव सचेतन ही होती है। कभी भी आत्मा चैतन्यरहित नहीं होती है। आत्मा कर्मसहित हो या कर्मरहित हो, उसमें चैतन्य तो रहता ही है।
एक ही जीवात्मा के कितने परिवर्तन! जीवात्मा स्वयं वे परिवर्तन करता है। परिवर्तन का माध्यम होते हैं, कर्म | जीवात्मा कर्म करता है और परिवर्तन पाता है।
परिवर्तनशील जीवात्मा को जैनदर्शन में 'परिणामी आत्मा' कही गई है।
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