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पत्र १३
'परिणाम' यानी रूपान्तर । जैनदर्शन का यह पारिभाषिक शब्द है । जीवात्मा परिणामी कर्ता है, यानी कर्मबंधन करता है, यह बात कही है । कर्ता परिणामी परिणामो, कर्म जे जीवे करिये रे...
जीवात्मा अपने निश्चित पर्यायों के अनुसार परिवर्तन पाता रहता है । द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा से आत्मद्रव्य एक ही होता है, इस से वह एक ही कहलाता है, परन्तु पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा से, आत्मा के अनन्त पर्याय होते हैं, इस दृष्टि से एक आत्मा अनन्त भी कहलाती है।
चेतन, ‘नयवाद ́ जैनदर्शन का महत्वपूर्ण तत्त्वज्ञान है। नयवाद के माध्यम से एक-एक वस्तु के अनेक धर्म, अनेक स्वभाव, अनेक अवस्थाओं का बोध होता है। नयवाद के अनेक प्रकार हैं। उनमें दो प्रकार मुख्य हैं : द्रव्यार्थिक नय और पर्यायार्थिक नय । द्रव्यार्थिक नय वस्तु के मूल स्वरूप का ज्ञान कराता है, पर्यायार्थिक नय वस्तु की अनेक अवस्थाओं का बोध कराता है ।
नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र.... वगैरह सात नय भी बताये गये हैं। इसमें संग्रह नय, सभी आत्माओं की एक शुद्ध अवस्था की अपेक्षा से आत्मा को 'एक' मानता है, जबकि व्यवहार नय, सभी आत्माओं को भिन्न-भिन्न मानता है। इसी भाव को लेकर योगीश्वर कहते हैं
एक-अनेक रूप नयवादे नियते नर अनुसरिये रे.....
'नर' का अर्थ है, आत्मा । जीवात्मा 'नर' कहलाता है, परमात्मा 'नारायण' कहलाता है। नयों की अपेक्षा से नर एक और अनेक कहलाता है। दुःख-सुखरुप कर्मफल जाणो, निश्चय एक आनन्दो रे....
‘आत्मा जो कर्म बाँधती है, उन कर्मों का फल है सुख और दुःख । आत्मा कर्म बाँधती है और आत्मा कर्मों का फल भी भोगती है।' यह बात व्यवहार नय से कही गई है। निश्चय नय की दृष्टि से तो आत्मा आनन्द को ही भोगती है। निजानन्द का ही अनुभव करती है ।
'चेतनता परिणाम न चूके, चेतन कहे जिनचंदो रे.....
श्री जिनचन्द्र-जिनेश्वर भगवंतों ने कहा हैं कि चेतन आत्मा कभी चेतना का त्याग नहीं करती है। चेतना का धर्म है, आनन्द ।
निश्चय नय आत्मा के शुद्ध स्वरूप की ही बात करता है। शुद्ध स्वरूप में
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