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पत्र १३ निराकार अभेदसंग्राहक, भेदग्राहक साकारो रे,
दर्शन ज्ञान दु भेद चेतना, वस्तुग्रहण व्यापारो रे...२ कर्ता परिणामी परिणामो, कर्म जे जीवे करिये रे,
एक-अनेक रूप नयवादे, नियते नर अनुसरिये रे...३ दुःख-सुख, रूप, कर्मफल जाणो, निश्चय एक आनंदो रे,
चेतनता-परिणाम न चूके, चेतन कहे जिनचंदो रे...४ परिणामी चेतन परिणामो, ज्ञान, कर्म फल भावी रे,
ज्ञान, कर्मफल चेतन कहिए, लेजो तेह मनावी रे...५ आतमज्ञानी श्रमण कहावे, बीजा तो द्रव्य लिंगी रे,
वस्तुगते जे वस्तु प्रकाशे, आनन्दघन-मत संगी रे...६ हे वासुपूज्य भगवंत! आप देव-देवेन्द्रों के पूजनीय हो, सुर-असुरों के पूजनीय हो, मानव-मानवेन्द्रों के पूजनीय हो...नारकी के जीवों के भी आप ही स्मरणीय हो... इसी वजह से आप तीनों भुवन के स्वामी हो।
हे वासुपूज्य स्वामी! आप 'घननामी' हो। यानी आप वास्तव में परम आत्मा हैं। निश्चय नय की दृष्टि से आपका नाम नहीं है! आप परम विशुद्ध आत्मा ही हैं, परन्तु व्यवहार नय से आप परनामी' हैं। यानी आपका 'वासुपूज्य' ऐसा नाम, आपके शरीर का नाम है! और, शरीर आत्मा से पर है, भिन्न है। इस अपेक्षा से आप परनामी हैं। __ 'हे भगवंत! आप निराकार हैं। आप साकार भी हैं। आप सचेतन हैं। आप कर्म करनेवाले हैं और कर्मफल के भोक्ता भी हैं।'
० परमात्मा निराकार हैं, ० परमात्मा साकार हैं, ० परमात्मा सचेतन हैं, ० परमात्मा कर्मों के कर्ता हैं, ० परमात्मा कर्मफल के भोक्ता हैं।
चेतन, ये पाँच बातें श्री आनन्दघनजी ने समझाने का प्रयत्न किया है, परन्तु अपरिचित शब्दों में! वे कहते हैं
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