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पत्र १३
९७ ।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।। ० जब चेतना दर्शन में प्रवाहित होती है, तब आत्मा निराकार होती है,
और जब चेतना ज्ञान में प्रवाहित होती है, तब आत्मा साकार होती है। ० द्रव्यार्थिक नय वस्तु के मूल स्वरूप का ज्ञान करवाता है, पर्यायार्थिक
नय वस्तु की अनेक अवस्थाओं का बोध करवाता है। ० निश्चय नय आत्मा के शुद्ध स्वरूप की ही बात करता है। शुद्ध स्वरूप
में सुख-दुःख की भोक्ता आत्मा नहीं होती है। कर्मजन्य अशुद्ध अवस्था में ही आत्मा सुख-दुःख की भोक्ता होती है। दोनों अवस्थायें 'शुद्ध और
अशुद्ध' होती हैं, आत्मा की ही। । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । पत्र : १३
श्री वासुपूज्यस्वामी स्तवना
प्रिय चेतन, धर्मलाभ!
तेरा पत्र संक्षिप्त है, परन्तु गहराई ज्यादा है। ज्यों-ज्यों आत्म-चिन्तन की गहराई में जायेगा, त्यों-त्यों आत्मानन्द की अनुभूति भी गहरी होती जायेगी।
चेतन, आध्यात्मिक विकास यदि चाहता है, तो आत्मस्वरूप का व्यापक ज्ञान तुझे प्राप्त करना होगा। आत्मा के अस्तित्व का स्वीकार तो सहजता से हो गया है, कोई शंका-संदेह नहीं रहा है आत्मा के अस्तित्व के विषय में।
अब, आत्मा का स्वरूप जानना होगा। आत्मवादी विचारधाराओं में, स्वरूप को लेकर अनेक मतभेद दिखाई देते हैं। विभिन्न विचारों का समन्वय करने का प्रयत्न किया है, श्री आनन्दघनजी ने। भिन्न-भिन्न दृष्टि से आत्मस्वरूप समझाने का इस स्तवना में उन्होंने सफल प्रयत्न किया है। हालाँकि इस वासुपूज्यस्तवना में पारिभाषिक-अपरिचित शब्दों का ढेर तुझे देखने को मिलेगा। सभी अपरिचित शब्दों का विश्लेषण इस पत्र में करना संभव भी नहीं है, फिर भी सरलता से तुझे समझाने का प्रयत्न अवश्य करूँगा। वासुपूज्य जिन! त्रिभुवन स्वामी! घननामी परनामी रे,
निराकार साकार सचेतन, करम करमफल कामी रे...१
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