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पत्र १२
___ ९२ जे किरिया करी चउगति साधे ते न अध्यातम कहिए रे...
कुछ धर्मक्रियायें भी ऐसी होती हैं कि जो दिखने में आध्यात्मिक क्रिया लगती हैं...परन्तु वास्तव में वे आध्यात्मिक क्रिया नहीं होती हैं। हालाँकि क्रिया तो वह भी आध्यात्मिक बन सकती है, यदि क्रिया करनेवाला आध्यात्मिक हो
तो!
जो मनुष्य बाहर से आध्यात्मिक होने का दिखावा करता है, भीतर में भौतिक सुखों की तृष्णा से भरा हुआ होता है, इन्द्रियों के विषयों की स्पृहा से व्याकुल होता है, ऐसे जीव अध्यात्म की क्रिया, आध्यात्मिक दिखाई देनेवाले अनुष्ठान करने पर भी, भवभ्रमण ही करते रहते हैं। संसार के दुःख पाते हैं।
इस दुनिया में भिन्न-भिन्न प्रकृति के लोग होते हैं। जैसे भौतिकता-प्रिय लोग होते हैं, वैसे अध्यात्म-प्रिय लोग भी होते हैं | अध्यात्म-प्रिय लोग जहाँ अध्यात्म का नाम सुनते हैं...जहाँ अध्यात्म का आश्रम वगैरह देखते हैं...वहाँ चले जाते हैं। नाम-अध्यातम, ठवण अध्यातम, द्रव्य-अध्यातम छंडो रे... ___ श्री आनन्दघनजी कहते हैं कि मात्र अध्यात्म का नाम लेने से आत्मगुण की प्राप्ति नहीं होगी। कोई आध्यात्मिक पुरुष की मूर्ति बनाने मात्र से आत्मगुणों का आविर्भाव नहीं होगा। मात्र आत्मा का लक्ष्य रखने से भी आत्मगुणों का प्रगटीकरण नहीं होगा। और, आत्मा का लक्ष्य रखे बिना, मात्र क्रिया करने से भी आत्मा का शुद्ध स्वरूप प्राप्त नहीं होगा।
० नाम-अध्यातम यानी 'अध्यात्म' ऐसा नाम बार-बार रटना, ० ठवण-अध्यातम यानी किसी आध्यात्मिक व्यक्ति की मूर्ति बनाना, ० द्रव्य-अध्यातम यानी बिना आत्मलक्ष्य रखे मात्र क्रिया करना, बिना
क्रिया किये मात्र आत्मलक्ष्य रखना! श्री आनन्दघनजी, ये तीन अध्यात्म छोड़ने की प्रेरणा देते हैं और भावअध्यात्म की आराधना करने को उत्साहित करते हैं। भाव-अध्यातम निज गुण साधे, तेहसुं रढ़ मंडो रे...
आत्मगुणों के आविर्भाव के लक्ष्य से जो उचित धर्मक्रिया हो, वह भावअध्यात्म है। वैसे, धर्मक्रियासापेक्ष आत्मलक्ष्य रहे, वह भी भाव-अध्यात्म है। न लक्ष्य की उपेक्षा, न क्रिया की उपेक्षा ।
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