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पत्र १२
मुनिगण आतमरामी रे...
जो मुनि होते हैं, मौनी होते हैं, वे आतमरामी हो सकते हैं। पौद्गलिक भावों के प्रति जिन्होंने मौन धारण किया होता है, यानी पौद्गलिक पदार्थों में से जिनकी सुख - दुःख की कल्पना मिट गई होती है, ऐसे मुनिराज ही आत्मभाव में लीन हो सकते हैं ।
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'मुझे आत्मरमणता रहती है... मुझे आत्मज्ञान हो गया है...' ऐसा बोलनेवाले, दूसरों को कहनेवाले इन्द्रियपरवश एवं कषायपरवश आत्मज्ञानियों की संख्या बढ़ती हुई दिखती है। ऐसे लोगों का छेद उड़ाते हुए श्री आनन्दघनजी कहते हैं
मुख्यपणे जे आतमरामी ते केवल निष्कामी रे...
जो आतमरामी होते हैं, वे निष्काम योगी होते हैं ! जिन्होंने कामनाओं के वस्त्र उतार दिये होते हैं । कोई भी पौद्गलिक सुख की इच्छा उनके मन में नहीं होती है। ऐसा भी कह सकते हैं कि जो निष्कामी होते हैं, वे ही आतमरामी होते हैं। ऐसी निष्कामी और आत्मलक्षी आत्मायें ही 'निज स्वरुप' पाने का पुरुषार्थ कर सकती हैं और सफलता भी प्राप्त कर सकती हैं। इसी को 'अध्यात्म' कहा गया है।
निज-स्वरूप जे किरिया साधे ते अध्यातम लहिये रे...
जो द्रव्यक्रिया और भावक्रिया, आत्मा के शुद्ध स्वरूप की प्राप्ति करवाये, वह ही अध्यात्म है। शुद्ध आत्मस्वरूप की प्राप्ति का लक्ष्य होना चाहिए । अध्यात्म की परिभाषा भी यही है'आत्मानमधिकृत्य या शुद्धा क्रिया प्रवर्तते, तदध्यात्मम्'
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ध्येय होना चाहिए आत्मविशुद्धि का और क्रिया होनी चाहिए उस ध्येय को सिद्ध करनेवाली। पौद्गलिक भावों की ओर अनासक्त बने हुए मुनिजन ऐसी क्रियायें करते रहते हैं और आत्मविशुद्धि के पथ पर चलते रहते हैं । वे प्रसन्नचित्त होते हैं। वे धीर और गंभीर होते हैं । 'मैं शीघ्र शुद्ध हो जाऊँ...' ऐसी भी अधीरता उनमें नहीं होती है । सहजता से वे गति करते हैं, सहजता से जीते हैं, सहजता से वे विश्व को देखते हैं। सहजता से वे देहमुक्त... भवमुक्त होते हैं।